गुरुवार, 30 अगस्त 2012

मेरे अनुभूत सरल लघु प्रयोग

  (MERE ANUBHOOT SARAL LAGHU PRAYOG)




1.घर मे क्लेश का वातावरण अचानक से हो जाए तो थोडा नमक ले कर उसे अपने कंधे पर रख कर उत्तर दिशा की तरफ मुख कर ११ बार निम्न मंत्र का उच्चारण करे. “ उत्तराय सर्व बाधा निवारणाय फट् उस नमक को फिर हाथ मे ले कर घर के बहार थोड़े दूर कही रख दे तो घर मे क्लेश का वातावरण दूर होता है.
· 2.अगर घर मे उपरीबाधा या इतरयोनी की शंका हो तो शाम के समय धूप जलाए और पुरे घर मे “ हं रुद्ररूपाय उपद्रव नाशय नाशय फट्इस मंत्र का उच्चारण करते हुए घुमाए. ऐसा कुछ दिन करने पर इतरयोनी परेशान नहीं करती
· 3.नौकरी के interview के लिए जब जाना हो, उसके एक दिन पहले किसी मज़ार पर जा कर सफ़ेद मिठाई बच्चो मे बांटे, मज़ार पे दुआ करे और एक हरे रंग का धागा बिछे हुए कपडे से निकाले. घर पर आ कर उसे लोहबान का धुप लगाए और अल्लाहु मदद का जाप कर फूंक मारे, ऐसा ८८ बार जाप करे और फूंक मारे. इस धागे को अपनी जेब मे रखकर interview के लिए जाए, सफलता मिलेगी.
· 4.व्यापर वृद्धि के लिए व्यक्ति को अपने व्यापर स्थान पर एक अमरबेल लगानी चाहिए. उसे रोज पानी देना चाहिए तथा अगरबत्ती दिखा कर कोई भी लक्ष्मी मंत्र का जाप करने पर, उस लक्ष्मी मंत्र का प्रभाव बढ़ता है
· 5.किसी भी प्रकार की औषधि लेने से पूर्व उसे अपने सामने रख कर १०८ बार निम्न मंत्र का जाप कर लिया जाए और उसके बाद उसको सेवन के लिए उपयोग किया जाए तो उसका प्रभाव बढ़ता है. “ॐ धनवन्तरि सर्वोषधि सिद्धिं कुरु कुरु नमः
· 6.हाथी दांत का टुकड़ा अपने आप मे महत्वपूर्ण है. किसी भी शुक्रवार की रात्री को उस पर कुंकुम से ‘श्रीं’ लिख कर श्रीसूक्त के यथा संभव पाठ करे. इसके बाद उसे लाल कपडे मे लपेट कर तिजोरी मे रख देने पर निरंतर लक्ष्मी कृपा बनी रहती है

· 7. सूर्य को अर्ध्य देना अत्यंत ही शुभ है. अर्ध्य जल अर्पित करने से पूर्व ७ बार गायत्री का जाप कर अर्पित करने से आतंरिक चेतना का विकास होता है
8. घर के मुख्य द्वार के सामने सीधे ही आइना ना रखे. इससे लक्ष्मी सबंधित समस्या किसी न किसी रूप मे बनी रहती है, अतः इस चीज़ का ध्यान रखना चाहिए

सोमवार, 16 अप्रैल 2012

नवग्रह शांतिदायक टोटके-------

नवग्रह शांतिदायक टोटके-------
सूर्यः-

१॰ सूर्यदेव के दोष के लिए खीर का भोजन बनाओ और रोजाना चींटी के बिलों पर रखकर आवो और केले को छील कर रखो ।
२॰ जब वापस आवो तभी गाय को खीर और केला खिलाओ ।
३॰ जल और गाय का दूध मिलाकर सूर्यदेव को चढ़ावो। जब जल चढ़ाओ, तो इस तरह से कि सूर्य की किरणें उस गिरते हुए जल में से निकल कर आपके मस्तिष्क पर प्रवाहित हो ।
४॰ जल से अर्घ्य देने के बाद जहाँ पर जल चढ़ाया है, वहाँ पर सवा मुट्ठी साबुत चावल चढ़ा देवें ।
चन्द्रमाः-
१॰ पूर्णिमा के दिन गोला, बूरा तथा घी मिलाकर गाय को खिलायें । ५ पूर्णमासी तक गाय को खिलाना है ।
२॰ ५ पूर्णमासी तक केवल शुक्ल पक्ष में प्रत्येक १५ दिन गंगाजल तथा गाय का दूध चन्द्रमा उदय होने के बाद चन्द्रमा को अर्घ्य दें । अर्घ्य देते समय ऊपर दी गई विधि का इस्तेमाल करें ।
३॰ जब चाँदनी रात हो, तब जल के किनारे जल में चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को हाथ जोड़कर दस मिनट तक खड़ा रहे और फिर पानी में मीठा प्रसाद चढ़ा देवें, घी का दीपक प्रज्जवलित करें । उक्त प्रयोग घर में भी कर सकते हैं, पीतल के बर्तन में पानी भरकर छत पर रखकर या जहाँ भी चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब पानी में दिख सके वहीं पर यह कार्य कर सकते हैं ।
मंगलः-
१॰ चावलों को उबालने के बाद बचे हुए माँड-पानी में उतना ही पानी तथा १०० ग्राम गुड़ मिलाकर गाय को खिलाओ ।
२॰ सवा महीने में जितने दिन होते हैं, उतने साबुत चावल पीले कपड़े में बाँध कर यह पोटली अपने साथ रखो । यह प्रयोग सवा महीने तक करना है ।
३॰ मंगलवार के दिन हनुमान् जी के व्रत रखे । कम-से-कम पाँच मंगलवार तक ।
४॰ किसी जंगल जहाँ बन्दर रहते हो, में सवा मीटर लाल कपड़ा बाँध कर आये, फिर रोजाना अथवा मंगलवार के दिन उस जंगल में बन्दरों को चने और गुड़ खिलाये ।
बुधः-
१॰ सवा मीटर सफेद कपड़े में हल्दी से २१ स्थान पर “ॐ” लिखें तथा उसे पीपल पर लटका दें ।
२॰ बुधवार के दिन थोड़े गेहूँ तथा चने दूध में डालकर पीपल पर चढ़ावें ।
३॰ सोमवार से बुधवार तक हर सप्ताह कनैर के पेड़ पर दूध चढ़ावें । जिस दिन से शुरुआत करें उस दिन कनैर के पौधे की जड़ों में कलावा बाँधें । यह प्रयोग कम-से-कम पाँच सप्ताह करें ।
बृहस्पतिः-
१॰ साँड को रोजाना सवा किलो ७ अनाज, सवा सौ ग्राम गुड़ सवा महीने तक खिलायें ।
२॰ हल्दी पाँच गाँठ पीले कपड़े में बाँधकर पीपल के पेड़ पर बाँध दें तथा ३ गाँठ पीले कपड़े में बाँधकर अपने साथ रखें ।
३॰ बृहस्पतिवार के दिन भुने हुए चने बिना नमक के ग्यारह मन्दिरों के सामने बांटे । सुबह उठने के बाद घर से निकलते ही जो भी जीव सामने आये उसे ही खिलावें चाहे कोई जानवे हो या मनुष्य ।
शुक्रः-
१॰ उड़द का पौधा घर में लगाकर उस पर सुबह के समय दूध चढ़ावें । प्रथम दिन संकल्प कर पौधे की जड़ में कलावा बाँधें । यह प्रयोग सवा दो महीने तक करना है ।
२॰ सवा दो महीने में जितने दिन होते है, उतने उड़द के दाने सफेद कपड़े में बाँधकर अपने पास रखें ।
३॰ शुक्रवार के दिन पाँच गेंदा के फूल तथा सवा सौ उड़द पीपल की खोखर में रखें, कम-से-कम पाँच शुक्रवार तक ।
शनिः-
१॰ सवा महिने तक प्रतिदिन तेली के घर बैल को गुड़ तथा तेल लगी रोटी खिलावें ।
राहूः-
१॰ चन्दन की लकड़ी साथ में रखें । रोजाना सुबह उस चन्दन की लकड़ी को पत्थर पर घिसकर पानी में मिलाकर उस पानी को पियें ।
२॰ साबुत मूंग का खाने में अधिक सेवन करें ।
३॰ साबुत गेहूं उबालकर मीठा डालकर कोड़ी मनुष्यों को खिलावें तथा सत्कार करके घर वापस आवें ।
केतुः-
१॰ मिट्टी के घड़े का बराबर आधा-आधा करो । ध्यान रहे नीचे का हिस्सा काम में लेना है, वह समतल हो अर्थात् किनारे उपर-नीचे न हो । इसमें अब एक छोटा सा छेद करें तथा इस हिस्से को ऐसे स्थान पर जहाँ मनुष्य-पशु आदि का आवागमन न हो अर्थात् एकान्त में, जमीन में गड्ढा कर के गाड़ दें । ऊपर का हिस्सा खुला रखें । अब रोजाना सुबह अपने ऊपर से उबार कर सवा सौ ग्राम दूध उस घड़े के हिस्से में चढ़ावें । दूध चढ़ाने के बाद उससे अलग हो जावें तथा जाते समय पीछे मुड़कर नहीं देखें

टोटका

स्वास्थ्य :
  1. सदा स्वस्थ बने रहने के लिए रात्रि को पानी किसी लोटे-गिलास में सुबह उठ कर पीने के लिए रख दें। उसे पी कर बर्तन को उल्टा रख दें तथा दिन में भी पानी पीने के बाद बर्तन (गिलास आदि) को उल्टा रखने से यकृत संबंधी परेशानियां नहीं होतीं तथा व्यक्ति सदैव स्वस्थ बना रहता है।
  2. किसी भी रविवार/ मंगलवार के दिन फिटकरी का टुकड़ा बच्चे के सिरहाने रख दें। बच्चा बुरे स्वप्न के प्रभाव से दूर रह कर आराम से सो सकेगा।
  3. हृदय विकार, रक्तचाप के लिए एकमुखी, या सोलहमुखी रुद्राक्ष श्रेष्ठ होता है। इनके न मिलने पर ग्यारहमुखी, सातमुखी, अथवा पांचमुखी रुद्राक्ष का उपयोग कर सकते हैं। इच्छित रुद्राक्ष को ले कर श्रावण माह में, किसी प्रदोष व्रत के दिन, अथवा सोमवार के दिन, गंगा जल से स्नान करा कर, शिव जी पर चढ़ाएं। फिर संभव हो तो रुद्राभिषेक करें, या शिव जी पर, ú नमः शिवाय बोलते हुए दूध से अभिषेक कराएं। इस प्रकार अभिमंत्रित रुद्राक्ष को काले डोरे में डाल कर गले में पहनें।
  4. सूर्य भगवान का प्रतिदिन ध्यान करना, सूर्य पर जल चढ़ाना, आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करना भी हृदय रोग में लाभ देते हैं।
  5. कैंसर की स्थिति में मंगलवार के दिन एक लाल रंग का धागा हाथ मे, या कमर में बांधें। जो धागा न बांधना चाहें, वे तांबे का कड़ा, या छल्ला पहन सकते हैं। बुधवार को थोड़े चावल दान करें तथा शनिवार को 3 ( रत्ती, या अधिक वजन का नीलम, सूर्यास्त के बाद, सोने में पहनें। अपने इष्ट प्रभु का ध्यान करें।
  6. बच्चों को नज़र शीघ्र लगती है। नज़र लगने की दशा में बच्चा लगातार रोता रहता है। आंखों एवं होठों का सूज जाना, चेहरा लाल हो जाना एवं अन्य बीमारी भी हो जाती है। ऐसी स्थिति में राई की धुनी बच्चे को देनी चाहिए। 7 साबुत लाल मिर्च बच्चे पर से उबार कर जला दें। 9 नींबुओं पर तेल लगाएं। फिर उनपर सिंदूर लगावें। अब उन्हंे बच्चे पर से 7 बार उबार कर, किसी चौराहे पर ले जा कर, 4 भाग कर के, चारों दिशाओं में फेंक आएं।

नौकरी-व्यापार :
  1. व्यापार में यदि निरंतर घाटा हो रहा हो, तो बुधवार के दिन यह प्रयोग करें। इस दिन एक पीली बड़ी कौड़ी बाजार से खरीद कर लाएं। 2 लौंग, 2 छोटी इलायची तथा 1 चुटकी दुकान, कारखाना आदि की मिट्टी के साथ उस कौड़ी को जला कर उसकी राख बना लें। यह राख बुधवार को ही एक पान के पत्ते पर रख कर उसमें एक छेद वाला तांबे का पैसा डाल दें और इस पान के पत्ते को सारी सामग्री सहित कहीं बहते पानी में छोड़ दें। जिस बुधवार को यह प्रयोग करें, उस दिन प्रयोग समाप्त होने तक निराहार रहें। किसी भूखे को भोजन तथा दक्षिणा देने के बाद ही भोजन करें। इसको नियमित रूप से 5 बुधवार तक करें। अंतिम, अर्थात पांचवे बुधवार को अपने इष्ट देवता को जल, पुष्प, मिठाई आदि से प्रसन्न करें। उनका प्रसाद पहले स्वयं लें, फिर बाहर के अन्य लोगों को स्वयं बांटे।
  2. मंगलवार के दिन 7 साबुत सीधी डंठल वाली हरी मिर्च और एक नींबू लाएं। इसके पश्चात् उन्हें काले डोरे में पिरो लें। इनको कार्यालय स्थल के बाहर टांग दें। ऐसा हर मंगलवार को करें। ऐसा करने से व्यापार बढ़ता है और नजर, या टोक भी नहीं लगती। यह प्रयोग शनिवार के दिन भी किया जा सकता है।
  3. किसी भी आवश्यक कार्य के लिए घर से निकलते समय घर की देहरी के बाहर, पूर्व दिशा की ओर, एक मुट्ठी लाल धुधंची को रख कर, अपना कार्य बोलते हुए, उसपर बलपूर्वक पैर रख कर, कार्य हेतु निकल जाएं, तो आवश्य ही कार्य में सफलता प्राप्त होगी।
  4. जिन व्यापारियों को लगातार हानि हो रही हो, वे गायत्री मंत्र के द्वारा हवन करवाएं। व्यापार स्थल के हवन की विभूति को, किसी सफेद रंग के कपड़े में डाल कर, घर में तथा व्यापार स्थल पर रखें। हानि होनी बंद हो जाएगी। व्यापार अच्छा चल जाएगा। परेषानी होने पर, सेहत खराब होने पर इस हवन की कुछ विभूती का तिलक करें तथा जीभ से भी चाटें, तो शारीरिक कष्ट दूर होगा तथा बीमारी हर हालत में ठीक हो जाएगी।

वास्तु :
  1. वास्तु दोष दूर करने के लिए किसी शुभ गृह प्रवेश के मुहूर्त में 5 रत्न, या चांदी के छोटे-छोटे 5 टुकड़े ले कर, उन्हें गो दूध, फिर गंगा जल से स्नान करा कर, षोडषोपचार विधि से श्री उमा-महेश्वर का पूजन कर के, ‘शिव तांडव स्तोत्र का एक पाठ करें। फिर इनको घर की चारों दिशाओं में 1-1 फुट नीचे गाड़ दें। 5वां रत्न, या चांदी का टुकड़ा मुख्य द्वार में कहीं गड्ढा कर गाड़ दें। धीरे-धीरे, वास्तु दोष से मुक्ति प्राप्त हो कर, सुख-शांति प्राप्त होगी।
  2. मुख्य द्वार पर आगे-पीछे गणेश जी की प्रतिमा, या चित्र लगाएं।
  3. द्वार पर मंगल कलश, मछली का चित्र, स्वस्त्तिक चिह्न, शुभ-लाभ, जो भी लगा सकते हों, लगाएं।
  4. शनि जन्मकुंडली के चौथे घर में स्थित हो, तो जातक को पैतृक भूमि पर मकान नहीं बनाना चाहिए। यदि जातक ऐसा करता है, तो परिवार के सदस्यों को जिंदगी भर कष्ट उठाने पड़ते हैं। पुत्र रोगी रहता है। तंदुरुस्त होने की हालत में उसे, किसी झूठे मुकदमे मे फंस कर, कारावास की सजा भुगतनी पड़ती है।
  5. शनि जन्मकुंडली के छठें घर में हो, तो भवन निर्माण के पूर्व उस भूमि पर हवनादि करें और जमीन को शुद्ध कर लें, जिससे केतु का प्रभाव मंद पड़ जाता है।
  6. जन्मकुंडली के ग्यारहवें घर में शनि हो, तो मुख्य द्वार की चौखट बनाने से पूर्व उसके नीचे चंदन दबा दें।
  7. एक बार भवन निर्माण का कार्य प्रारंभ हो जाए, तो बीच में उसे रोकें नहीं, अन्यथा पूरे मकान में राहु का वास हो जाता है।
  8. भवन निर्माण शुरू कराने से पूर्व भवन निर्माण करने वालों (कारीगरों) को मिष्ठान्न खिलाएं।
  9. भवन निर्माण से पूर्व मकान की जमीन पर ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए।
  10. भवन निर्माण करते समय जमीन में से, या जमीन पर चीटियां निकले, तो उन चीटियों को शक्कर एवं आटा मिला कर खिलाएं।
  11. भवन के मालिक की जन्मकुंडली में पांचवें घर में केतु हो, तो भवन निर्माण के पहले केतु का दान अवश्य करें।

झाड़ू को लक्ष्मी का रूप माना जाता है,

 घर की साफ-सफाई सभी करते हैं और इस काम के लिए घरों में झाड़ू अवश्य ही रहती है। शास्त्रों के अनुसार झाड़ू के संबंध कई महत्वपूर्ण बातें दी गई हैं।झाड़ू को लक्ष्मी का रूप माना जाता है, जब यह घर की गंदगी, धूल-मिट्टी साफ करती है तो इसका मतलब यही है कि देवी महालक्ष्मी हमारे घर से दरिद्रता को बाहर निकाल देती है।घर  में कई वस्तुएं होती हैं कुछ बहुत सामान्य रहती है। इनकी ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। ऐसी चीजों में से एक है झाड़ू। जब भी साफ-सफाई करना हो तभी झाड़ू का काम होता है। अन्यथा इसकी ओर कोई ध्यान नहीं देता।  घर यदि साफ और स्वच्छ रहेगा तो हमारे जीवन में धन संबंधी कई परेशानियां स्वत: ही दूर हो जाती हैं।जब घर में झाड़ू का इस्तेमाल न हो, तब उसे नजरों के सामने से हटाकर रखना चाहिए। झाड़ू वैसे तो एक सामान्य सी चीज है लेकिन परिवार की आर्थिक स्थिति मजबूत करने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। प्राचीन परंपराओं को मानने वाले लोग आज भी झाड़ू पर पैर लगने के बाद उसे प्रणाम करते हैं क्योंकि झाड़ू को लक्ष्मी का रूप माना जाता है। विद्वानों के अनुसार झाड़ू पर पैर लगने से महालक्ष्मी का अनादर होता है। झाड़ू घर का कचरा बाहर करती है और कचरे को दरिद्रता का प्रतीक माना जाता है। जिस घर में पूरी साफ-सफाई रहती है वहां धन, संपत्ति और सुख-शांति रहती है। इसके विपरित जहां गंदगी रहती है वहां दरिद्रता का वास होता है। ऐसे घरों में रहने वाले सभी सदस्यों को कई प्रकार की आर्थिक परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इसी कारण घर को पूरी तरह साफ  रखने पर जोर दिया जाता है ताकि घर की दरिद्रता दूर हो सके और महालक्ष्मी की कृपा प्राप्त हो सके। घर से दरिद्रता रूपी कचरे को दूर करके झाड़ू यानि महालक्ष्मी हमें धन-धान्य, सुख-संपत्ति प्रदान करती है। जब घर में झाड़ू का कार्य न हो तब उसे ऐसे स्थान पर रखा जाता है जहां किसी की नजर न पड़े। इसके अलावा झाड़ू को अलग रखने से उस पर किसी का पैर नहीं लगेगा जिससे देवी महालक्ष्मी का निरादर नहीं होगा। यदि भुलवश झाड़ू को पैर लग जाए तो महालक्ष्मी से क्षमा की प्रार्थना कर लेना चाहिए।जब घर में झाड़ू का इस्तेमाल न हो, तब उसे नजरों के सामने से हटाकर रखना चाहिए।ऐसे ही झाड़ू के कुछ सतर्कता के नुस्खे अपनाये गये उनमें से आप सब के समक्ष है जैसे :-

- झाड़ू को कभी भी खड़ा नहीं रखना चाहिए।

- ध्यान रहे झाड़ू पर जाने-अनजाने पैर नहीं लगने चाहिए, इससे महालक्ष्मी का अपमान होता है।

- झाड़ू हमेशा साफ रखें ,गिला न छोडे ।

- ज्यादा पुरानी झाड़ू को घर में न रखें।

- झाड़ू को कभी घर के बाहर बिखरकर न फहके ,जलाना नहीं चाहिए।

- शनिवार को पुरानी झाड़ू बदल देना चाहिए।


- घर के मुख्य दरवाजा के पीछे एक छोटी झाड़ू टांगकर रखना चाहिए। इससे घर में लक्ष्मी की कृपा बनी रहती है।

मानव जन्म से ही असर पड़ता है

मानव जन्म से ही असर पड़ता है जातक के भाग्य पर ,उसके मानव शरीर पर,जातक जन्म जिस  मास, तिथि या वार को पैदा हुआ हो, उसका असर इनके आधार पर उनका स्वभाव, वृत्ति, संवेदन, चारित्र, गुण, दोष आदि जान सकते है । क्योके उपरोक्त विषयों का मानव के साथ एक घनिष्ट सम्बन्ध रहा है !आदिकाल से ही शास्त्रों में अनेको बार काल की गणना एवं मनुष्य के भाग्य चक्र का वर्णन आया है क्योके सनातन पद्धति में वार -तिथि-नक्षत्र-एवं पक्षों का एक सुंदर समन्वय शास्त्रों में दर्शाया गया है ! निम्नलिखित विषयों पर मानव जन्म में क्या असर किस मास में कैसा असर दर्शाती है उनका विवरण सनातन पद्धति (विक्रम संवत)द्वारा बताया जा रहा है :-
1. कार्तिकः- कार्तिक मास में जन्मा हुआ व्यक्ति अच्छे काम करने वाला, सुंदर एवं आकर्षक चेहरा, सुंदर केश वाला, ज्यादा बोलने वाला, व्यापारमें रस रखने वाला, उदार, परिश्रमवादी, साहसिक, और हमेशा ईमानदारी से जीवन व्यतित करने वाला, अन्य ऊपर वर्चस्व धराने की इच्छा वाला एवं निर्णय किया हुआ कार्य अवश्य पूर्ण करने वाला होता है ।
2. मार्गशिर्षः- मार्गशिर्ष मास में जन्मा हुआ व्यक्ति कलाओ में रस लेने वाला, यात्रा का शोकीन, परोपकारी, विलासी, चतुर. स्वच्छ दिल वाला, विद्याभ्यास का रसिक, अन्य का किया हुआ कार्य पसंद न आये, ईट का जवाब पत्थर से देने वाला, अन्यो के लिए दुःख सहन करने वाला, सामाजिक कार्यो में रस लेने वाला और सर्विस में वफादार रहने वाला होता है ।
3. पौषः- पौष मास में जन्मा हुआ व्यक्ति साधारण एवं कमजोर शरीर वाला, पिताकी संपत्ति कम प्राप्त करने वाला, पैसा प्राप्त करने में तकलीफ वाला, प्रभावशाली, साधारण स्थिति वाला, लोभी, धर्म का रसिक, स्वाभिमानी, चतुर, माता-पिता के पिछे खर्च करने वाला एवं शत्रुओ के ऊपर  विजय प्राप्त करने वाला होता है ।
4. माघः- माघ मास में जन्मा हुआ व्यक्ति धार्मिक, श्रद्धावान, अच्छे मित्र वाला, विचारशील, संगीतप्रेमी, आकस्मिक पैसे प्राप्त करने वाला, कुटुंब प्रेमी, कर्तव्य परायण, उदार, निःस्वार्थी, जीवन जीनेमें रस रखने वाला होता है ।
5. फाल्गुनः- फाल्गुन मास में जन्मा हुआ व्यक्ति चतुर, व्यवहार कुशल, दयावान, बलवान, जिद्दि, व्यक्ति के स्वभाव को पहचानने वाला, आत्म विश्वासु एवं भावनाशील होता है ।
6. चैत्रः- चैत्र मास में जन्मा हुआ व्यक्ति खाने पीने का शोखीन, अच्छे विचार रखने वाला, नम्र, अच्छे कार्य करने वाला,ईमानदार , स्पष्ट वक्ता, साफ दिल वाला, कला ओर विज्ञान में रस रखने वाला, निडरतासे काम करने वाला, कुटुंबसे सुखी, मिलनसार व्यक्तित्व वाला,  नौकरी -व्यवसायमें प्रतिकूलता खडी करने वाला और मित्रो से लाभ प्राप्त करने वाला होता है ।
7. वैशाखः- वैशाख मास में जन्मा हुआ व्यक्ति भाई से सुखी, अपना कार्य स्वतंत्र करने वाला, गुणवान, बळवान, अन्यको प्रभावित करने वाला, मिलनसार व्यक्तित्व वाला, खुशामत का विरोधी, संतानो के लीए खर्च करने वाला, शुभ और धार्मिक कार्योमें भी खर्च करने वाला एवं आधुनिक विचार वाला होता है ।
8. जेठः- जेठ मास में जन्मा हुआ व्यक्ति चंचल, तीव्र बुद्धि वाला, महेनती , Let go की भावना वाला, विरोध सहन नही करने वाला, कितनेक समय पर व्यसनी, वाचाल, समय के अनुरुप कार्य कुशल, द्रढ निर्णय धराने वाला, स्वतंत्र निर्णय शक्ति वाला, कुटुंब हेतु खर्च करने वाला एवं वांचन प्रीय होता है ।
9. अषाढः- अषाढ मास में जन्मा हुआ व्यक्ति राष्ट्र प्रेमी, गंभीर, दयालु, ज्यादा खर्च करने वाला, मंद पाचन शक्ति धराने वाला, अभिमानी, चंचल मन वाला, अच्छी पारिवारिक भावना रखने वाला, नोकरी से सुखी, वैवाहिक जीवनमें विघ्न वाला, मानसिक शक्तिशाली होता है एवं युवा अवस्था संघर्षमय होती है ।
10. श्रावणः- श्रावण मास में जन्मा हुआ व्यक्ति राष्ट्र प्रेमी, गंभीर, दयालु, धार्मिक, क्रांतिकारी, पुत्रो और मित्रो से सुखी, प्रतिभाशाली, नीडर, सत्यप्रीय, स्पष्ट वक्ता, स्वमानी, कम व्यवहार कुशलता वाला, प्रतिकूल संयोग सहन न करने वाला. संतानो के पीछे ज्यादा रस रखने वाला और आज्ञांकित  होता है।
11. भाद्रपद- भाद्रपद मास में जन्मा हुआ व्यक्ति खुले हाथ खर्च करने वाला, स्त्री और निति नियमोसे दुःख सहन नही करने वाला, कितने समय पर शारिरिक निर्बल, एक ही विचार वाला, ईमानदारी से दुःखी होने वाला, आध्यात्मिक विचारो वाला, विशाल हृदय वाला होता है ।
12. आश्विनः- अश्विन मास में जन्मा हुआ व्यक्ति चतुर, विद्वान, धनवान, असत्य के विरोधी, विचारशील, भावुक, साधारण, जीद्दी, निंदा से दुर रहने वाला, अपने आप आगे बढने वाला, प्रामाणिक वाक्य बोलने वाला, लग्न के बाद ज्यादा सुखी, निडर,सत्ता शोकीन और न्याय प्रिय होते है ।
13. अधिक मासः- अधिक मास में जन्मा हुआ व्यक्ति अच्छे चारित्रवाला, दूर दृष्टि वाला, धार्मिक मनोवृत्तिवाला, मिलनसार व्यक्तित्व का धनी,महेनत करने वाला, विशाल दिल वाला, आचरण शील और परोपकारी होता है ।

शुक्रवार, 6 अप्रैल 2012

तलाक या लड़ाई-झगड़े से बचना हो तो घर में क्या और क्यों करें?




शास्त्रों के अनुसार मनुष्य के जीवन के 16 महत्वपूर्ण संस्कार बताए गए हैं, इनमें से सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार में से एक है विवाह संस्कार। सामान्यत: बहुत कम लोगों को छोड़कर सभी लोगों का विवाह अवश्य ही होता है। शादी के बाद सामान्य वाद-विवाद तो आम बात है लेकिन कई बार छोटे झगड़े भी तलाक तक पहुंच जाते हैं। इस प्रकार की परिस्थितियों को दूर रखने के लिए ज्योतिषियों और घर के बुजूर्गों द्वारा एक उपाय बताया जाता है।

अक्सर परिवार से जुड़ी समस्याओं को दूर करने के लिए मां पार्वती की आराधना की बात कही जाती है। शास्त्रों के अनुसार परिवार से जुड़ी किसी भी प्रकार की समस्या के लिए मां पार्वती भक्ति सर्वश्रेष्ठ मार्ग है। मां पार्वती की प्रसन्नता के साथ ही शिवजी, गणेशजी आदि सभी देवी-देवताओं की कृपा प्राप्त हो जाती है। अत: सभी प्रकार के ग्रह दोष भी समाप्त हो जाते हैं।

ज्योतिष के अनुसार कुंडली में कुछ विशेष ग्रह दोषों के प्रभाव से वैवाहिक जीवन पर बुरा असर पड़ता है। ऐसे में उन ग्रहों के उचित ज्योतिषीय उपचार के साथ ही मां पार्वती को प्रतिदिन सिंदूर अर्पित करना चाहिए। सिंदूर को सुहाग का प्रतीक माना जाता है। जो भी व्यक्ति नियमित रूप से देवी मां की पूजा करता है उसके जीवन में कभी भी पारिवारिक क्लेश, झगड़े, मानसिक तनाव की स्थिति निर्मित नहीं होती है।

अगर आपको रोड पर दिखाई दे सांप तो समझ लें कि...



सांप एक ऐसा जीव है जिसे अपने सामने देखते ही लोगों के पसीने छूट जाते हैं। सांप का भय इतना अधिक रहता है कि काफी लोग सांप के नाम से ही घबराते हैं। शास्त्रों के अनुसार सांप को पूजनीय भी बताया गया है। महादेव नाग को आभूषण की तरह अपने गले में धारण करते हैं। सांपों से जुड़े कई शकुन और अपशकुन हमारे समाज में प्रचलित हैं।

यदि आप कहीं जा रहे हैं और रास्ते में आपको सांप दिखाई दे तो इसके कई प्रकार के संकेत बताए गए हैं। ऐसे समय में सांप का दिखाई देना सामान्यत: अपशकुन की श्रेणी में ही आता है। शास्त्रों के अनुसार शकुन और अपशकुन के संबंध में कई प्रकार की अवधारणाएं प्रचलित हैं। किसी भी कार्य की शुरूआत से पहले कई प्रकार की छोटी-छोटी घटनाएं होती हैं। इनमें से कुछ असामान्य सी भी प्रतीत होती हैं। ऐसी ही घटनाओं को शकुन और अपशकुन से जोड़कर देखा जाता है।

शकुन और अपशकुन की छोटी-छोटी घटनाओं में कई प्रकार के संकेत छिपे होते हैं जिन्हें समझने पर भविष्य में होने वाली संभावित घटनाओं की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। आजकल काफी लोग इन मान्यताओं को अंधविश्वास का नाम देते हैं जबकि पुराने समय इनका काफी अधिक महत्व माना जाता था।

जब भी आप किसी शुभ कार्य के लिए जा रहे हैं और रास्ते में कोई सांप दिख जाए तो इस अशुभ संकेत माना जाता है। इसका अर्थ यही है कि आप जिस कार्य के लिए जा रहे हैं उसमें आपको किसी प्रकार की कोई समस्या का सामना करना पड़ सकता है। अत: जब भी ऐसा हो तो कुछ देर रुककर अपने इष्टदेव का स्मरण करके ही कार्य के लिए निकलने चाहिए। यदि संभव हो तो उस समय वह कार्य टाल दिया जाना चाहिए। जरूरी होने पर भगवान को याद करके कार्य करें।
विवाह योग के लिएः- यदि परिवार में योग्य पुत्र या पुत्री का विवाह, प्रयत्न के बाद भी, नहीं हो पा रहा, तो घर में सफेद खरगोश पालना चाहिए और अविवाहित पुत्र, या पुत्री से उसे खाना दिलवाना चाहिए। खरगोश की सेवा उनसे करवानी चाहिए। इससे धीरे-धीरे, विवाह का योग बनने लगता है।
पुरुषों के विवाह में यदि रुकावटें और विलंब हो, तो दोमुखी रुद्राक्ष के पांच दाने लें। एक कटोरी जल में उन्हें पूजा में रखें। धूप, दीप जलाएं। प्रतिदिन तीन माला  'ऊँ पार्वती वल्लवभायु स्वाहा' का जाप करें। यह प्रयोग करीब तीन महीने तक करें। जल पौधें पर चढ़ा दें। तीन महीने की पूजा के पश्चात एक रुद्राक्ष गणेश पर, एक रुद्राक्ष पार्वती पर, एक रुद्राक्ष कार्तिकेय पर, एक रुद्राक्ष नदी को और एक रुद्राक्ष भगवान शिव पर चढ़ा दें। शिवलिंग पर जल चढ़ाए और आराधना करते हुए प्रभु भोलेनाथ से प्रार्थना करें। यह बहुत चमत्कारी टोटका है। अवश्य शीघ्र विवाह के लिए रिश्ते आने लगगें । यह उपाय शुक्ल पक्ष के प्रथम सोमवार से आरंभ करें। रुद्राक्ष की पवित्र माला से जाप करें।
ससुराल में प्यार पाने के लिएः- विवाह पश्चात ससुराल में प्यार पाने के लिए और सभी से अच्छे संबंध हों, इसके लिए लड़की को सर्वप्रथम सबका सम्मान करना चाहिए। एक कटोरी में जल लें। उसे पूजास्थल में रखें। धूप दीप जला लें। भोग-प्रसाद रखें। 'ऊँ क्लीं कृष्णाय नमः' मंत्र की एक माला प्रतिदिन जाप करें। पूजा के पश्चात जल पी लें। इलायची एक सुबह, एक शाम को खा लें। परिवार में सुख-शांति रहती है। ससुराल में सबसे मधुर संबंध बना रहता है।
संतान प्राप्ति में विलंब होने के कारण जानने परः- संतान प्राप्ति देव आराधना से होता है। यदि बुध और शुक्र बाधक हों, तो शिव भगवान् का अभिषेक, रुद्राभिषेक करना चाहिए। यदि चंद्रमा बाधक हो, तो यंत्र, मंत्र जाप और औषधियों का उपयोग करना चाहिए। शनि, मंगल और सूर्य बाधक हों, तो दूर्गा देवी की आराधना करनी चाहिए। यदि राहु-केतु बाधक हों तो विधिपूर्वक कुल देवता की पूजा करनी चाहिए। नवग्रह शांति पाठ भी कराना चाहिए।
मंगल दोष निवारण के लिएः- यदि पति मंगला है तो पत्नी को मूंगा धारण करना चाहिए तथा यदि पत्नी मंगली है तो पति को मूंगा धारण करना चाहिए। मूंगा रत्न धारण करने से पति या पत्नी की मांगलिक दोष के क्रूर प्रभाव से रक्षा होती है। देशी मूंगा विद्वान ज्योतिषी के परामर्श से, दाहिने हाथ की अनामिका में, चांदी की अंगूठी में जड़वा कर, मंगलवार के दिन प्रातः काल मंत्रों द्वारा अभिमंत्रित कर, धारण करना चाहिए।

बुधवार, 22 फ़रवरी 2012

क्यों होती है जन्म पत्रिका बनवाने की आवश्यकता


ग्रहों के चक्कर से कोई नहीं बच सकता। रावण जैसा राजा नीति कुशल, विद्वान, बलशाली सभी ग्रहों को वशीभूत करने वाला भी शनि की कुदृष्टि से नहीं बच पाया। राजा हरिशचंद्र को भी ग्रहों ने श्मशान में चौकीदारी करवा दी। राजा नल व दमयंती को भी ग्रहों ने नहीं छोड़ा और चोरी का इल्जाम लगा। राजा रामचंद्र को वन-वन भटकना पड़ा। गांडीवधारी अर्जुन को लूट लिया गया। ग्रह किसी को भी नहीं बख्शते। एक ग्वाले को प्रसिद्ध राजा नेपोलियन बोनापार्ट बना दिया। चाहे कोई भी समाज हो, कोई भी धर्म हो ग्रहों की प्रतिकूल स्थिति से कोई नहीं बच सकता।
जन्म कुंडली जातक का शरीर है। जिस प्रकार डॉक्टर रोग पहचानकर इलाज करता है, ठीक उसी प्रकार एक कुशल ज्योतिष भी निदान बताने में समर्थ होता है। पीड़ा तो होगी लेकिन उस पीड़ा का अहसास कम होगा। उदाहरणार्थ यदि किसी की जन्म पत्रिका में यह मालूम है कि इसका किसी ट्रक से एक्सीडेंट होगा, उसे उस ग्रहों को अनुकूल बनाने वाले उपाय करने से टक्कर तो होगी, लेकिन सायकल से होगी। यदि पहले से जाना जाए कि इसका तलाक हो सकता है तो उस तलाक करवाने वाले ग्रहों को अनुकूल बनाकर उसे टाला जा सकता है।
ग्रह कोई भगवान नहीं होता, बल्कि आकाशीय मंडल में पृथ्वी के समान ही है। हमारे जन्म के समय उस ग्रहों की रश्मि किस प्रकार पड़ रही है, बस इसी का ज्ञान जन्म पत्रिका से जाना जा सकता है। दशा-अंतरदशा व गोचर स्थिति को जानकर सही-सही भविष्यवाणी की जा सकती है। इस कारण ही जन्म पत्रिका बनवाना चाहिए।

जन्म पत्रिका से क्या-क्या जाना जा सकता है?



जन्म पत्रिका बनना सीखने से पहले हमें जान लेना होगा कि जन्म पत्रिका से क्या-क्या जाना जा सकता है?
जन्म पत्रिका वह है, जिसमे जन्म के समय किन ग्रहों की स्थिति किस प्रकार थी व कौनसी जन्म लग्न जन्म के समय थी। जन्म पत्रिका में बारह खाने होते हैं जो इस प्रकार हैं-

यदि प्रथम भाव में 1 नंबर है तो मेष लग्न होगा, उसी प्रकार 2 नंबर को वृषभ, 3 नंबर को मिथुन, 4 को कर्क, 5 को सिंह, 6 को कन्या, 7 को तुला, 8 को वृश्चिक, 9 को धनु, 10 को मकर, 11 को कुंभ व 12 नंबर को मीन लग्न कहेंगे। इसी प्रकार पहले घर को प्रथम भाव कहा जाएगा, इसे लग्न भी कहते हैं।

जन्म पत्रिका के अलग-अलग भावों से हमें अलग-अलग जानकारी मिलती है, इसे हम निम्न प्रकार जानेंगे-

प्रथम भाव से हमें शारीरिक आकृति, स्वभाव, वर्ण चिन्ह, व्यक्तित्व, चरित्र, मुख, गुण व अवगुण, प्रारंभिक जीवन विचार, यश, सुख-दुख, नेतृत्व शक्ति, व्यक्तित्व, मुख का ऊपरी भाग, जीवन के संबंध में जानकारी मिलती है। इस भाव से जनस्वास्थ्य, मंत्रिमंडल की परिस्थितियों पर भी विचार जाना जा सकता है।

द्वितीय भाव से हमें कुटुंब के लोगों के बारे में, वाणी विचार, धन की बचत, सौभाग्य, लाभ-हानि, आभूषण, दृष्टि, दाहिनी आंख, स्मरण शक्ति, नाक, ठुड्डी, दांत, स्त्री की मृत्यु, कला, सुख, गला, कान, मृत्यु का कारण एवं राष्ट्रीय विचार में राजस्व, जनसाधारण की आर्थिक दशा आयात एवं वाणिज्य व्यवसाय आदि के बारे में जाना जा सकता है। इस भाव से कैद यानी राजदंड भी देखा जाता है।

तृतीय भाव से भाई, पराक्रम, साहस, मित्रों से संबंध, साझेदारी, संचार-माध्यम, स्वर, संगीत, लेखन कार्य, वक्ष स्थल, फेफड़े, भुजाएं, बंधु-बान्धव। राष्ट्रीय ज्योतिष के लिए रेल, वायुयान, पत्र-पत्रिकाएं, पत्र व्यवहार निकटतम देशों की हलचल आदि जाना जाता है।

चतुर्थ भाव में माता, स्वयं का मकान, पारिवारिक स्थिति, भूमि, वाहन सुख, पैतृक संपत्ति, मातृभूमि, जनता से संबंधित कार्य, कुर्सी, कुआं, दूध, तालाब, गुप्त कोष, उदर, छाती, राष्ट्रीय ज्योतिष हेतु शिक्षण संस्थाएं, कॉलेज, स्कूल, कृषि, जमीन, सर्वसाधारण की प्रसन्नता एवं जनता से संबंधित कार्य एवं स्थानीय राजनीति, जनता के बीच पहचान देखा जाता है।

पंचम भाव में विद्या, विवेक, लेखन, मनोरंजन, संतान, मंत्र-तंत्र, प्रेम, सट्टा, लॉटरी, अकस्मात धन लाभ, पूर्वजन्म, गर्भाशय, मूत्राशय, पीठ, प्रशासकीय क्षमता, आय भी जानी जाती है क्योंकि यहां से कोई भी ग्रह सप्तम दृष्टि से आय भाव को देखता है।

षष्ठ भाव इस भाव से शत्रु, रोग, ऋण, विघ्न-बाधा, भोजन, चाचा-चाची, अपयश, चोट, घाव, विश्वासघात, असफलता, पालतू जानवर, नौकर, वाद-विवाद, कोर्ट से संबंधित कार्य, आंत, पेट, सीमा विवाद, आक्रमण, जल-थल सैन्य के बारे में जाना जा सकता है।

सप्तम भाव स्त्री से संबंधित, विवाह, सेक्स, पति-पत्नी, वाणिज्य, क्रय-विक्रय, व्यवहार, साझेदारी, मूत्राशय, सार्वजनिक, गुप्त रोग, राष्ट्रीय नैतिकता, वैदेशिक संबंध, युद्ध का विचार भी किया जाता है। इसे मारक भाव भी कहते हैं।

अष्टम भाव से मृत्यु, आयु, मृत्यु का कारण, स्त्री धन, गुप्त धन, उत्तराधिकारी, स्वयं द्वारा अर्जित मकान, जातक की स्थिति, वियोग, दुर्घटना, सजा, लांछन आदि इस भाव से विचार किया जाता है।

नवम भाव से धर्म, भाग्य, तीर्थयात्रा, संतान का भाग्य, साला-साली, आध्यात्मिक स्थिति, वैराग्य, आयात-निर्यात, यश, ख्याति, सार्वजनिक जीवन, भाग्योदय, पुनर्जन्म, मंदिर-धर्मशाला आदि का निर्माण कराना, योजना, विकास कार्य, न्यायालय से संबंधित कार्य जाने जाते हैं।

दशम भाव से पिता, राज्य, व्यापार, नौकरी, प्रशासनिक स्तर, मान-सम्मान, सफलता, सार्वजनिक जीवन, घुटने, संसद, विदेश व्यापार, आयात-निर्यात, विद्रोह आदि के बारे में जाना जाता है। इस भाव से पदोन्नति, उत्तरदायित्व, स्थायित्व, उच्च पद, राजनीतिक संबंध, जांघें एवं शासकीय सम्मान आदि के बारे में जाना जाता है।

एकादश भाव से मित्र, समाज, आकांक्षाएं, इच्छापूर्ति, आय, व्यवसाय में उन्नति, ज्येष्ठ भाई, रोग से मुक्ति, टखना, द्वितीय पत्नी, कान, वाणिज्य-व्यापार, परराष्ट्रों से लाभ, अंतरराष्ट्रीय संबंध आदि जाना जाता है।

द्वादश भाव से व्यय, हानि, दंड, गुप्त शत्रु, विदेश यात्रा, त्याग, असफलता, नेत्र पीड़ा, षड्यंत्र, कुटुंब में तनाव, दुर्भाग्य, जेल, अस्पताल में भर्ती होना, बदनामी, भोग-विलास, बायां कान, बाईं आंख, ऋण आदि के बारे में जाना जाता ह

साढ़ेसाती और कालसर्प


 कुछ लोग कालसर्प योग को नहीं मानते। देखा जाए तो शास्त्रों में कालसर्प योग नाम का कोई भी योग नहीं है। कुछ विद्धानों ने अपने अनुभव के आधार पर राहु और केतु के मध्य सारे ग्रह होने की स्थिति को कालसर्प योग की संज्ञा दी है। हमने भी यह हजारों पत्रिका को देखकर जाना कि ऐसी ग्रह स्थिति वाला व्यक्ति परेशान रहा।

राहु व केतु के मध्य सारे ग्रह आ जाने से कालसर्प योग विशेष प्रभावशाली नहीं होता जबकि केतु व राहु के मध्य ग्रहों का आना अधिक प्रभावी होता है। यहाँ धीरूभाई अम्बानी व सचिन तेंडुलकर के उदाहरण से समझा जा सकता है। दोनों की कुंडली में कालसर्प योग का असर है। दोनों ने ही संघर्ष किया। अत : केतु व राहु के बीच ग्रहों के आने का खासा प्रभाव दिखाई देता है।

इसी प्रकार शनि की साढ़ेसाती भी उसी अवस्था में परेशान करती है जब जन्म-पत्रिका में शनि की प्रतिकूल स्थिति हो। राजा नल, सत्यवादी राजा हरिशचन्द्र, महाराजा विक्रमादित्य जैसे पराक्रमी भी शनि की साढ़ेसाती के फेर से नहीं बच सके तो आम आदमी कैसे बच सकता है?

जन्म-पत्रिका में शनि की अशुभ स्थिति से साढ़ेसाती अशुभ फलदायी रहती है। यदि शनि उच्च राशि तुला में हो या मकर अथवा कुंभ में हो तो हानिप्रद नहीं होता।

शनि नीच राशि मेष में हो या सूर्य की राशि सिंह में हो व लोहे के पाद से हो तो फिर स्वयं भगवान ही क्यों न हो, फल भोगना ही पड़ता है। जब शनि अष्टम में नीच का हो या षष्ट भाव अथवा द्वादश में हो तो अशुभ फल देखने को मिलते हैं।

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दुर्भाग्य दूर करने के लिये

आटे का दिया, १ नीबू, ७ लाल मिर्च, ७ लड्डू,२ बत्ती, २ लोंग, २ बड़ी इलायची बङ या केले के पत्ते पर ये सारी चीजें रख दें |रात्रि १२ बजे सुनसान चौराहे पर जाकर पत्ते को रख दें व प्रार्थना करें,

 

अविवाहित युवती

पाँच सोमवार के व्रत करें, रोज एक रुद्राक्ष और एक बिल्बपत्र शिवलिंग पर चढायें, अगर माहवारी हो तो वह सोमवार छोड़ कर अगला वाला करें, एक समय सात्विक भोजन करें |

जब घर से निकले तब यह प्रार्थना करें = हे दुर्भाग्य, संकट, विपत्ती आप मेरे साथ चलें और पत्ते को रख दें | फिर प्रार्थना करें = मैं विदा हो रहा हूँ | आप मेरे साथ न आयें, चारों रास्ते खुले हैं आप कहीं भी जायें | एक बार करने के बाद एक दो महीने देखें, उपाय लाभकारी है| श्रद्धा से करें |

हवन और यज्ञ करने का मुहुर्त

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शास्त्रों में बताया गया है कि हम जो हवन या यज्ञ करते हैं उसमें दी गई हवि से यानी हवन सामग्री से देवताओं को बल प्राप्त होता है अर्थात वह उनका आहार है। आपने देवासुर संग्राम के विषय में काफी कुछ पढ़ा या सुना होगा जिसमें आपने देखा होगा कि असुर लोग जब देवताओं को पराजित कर देते थे तब असुर यज्ञ भाग पर अधिकार कर लेते थे ताकि देवताओं की शक्ति क्षीण हो जाए।
मान्यताओं के अनुसार हवन और यज्ञ में दी गई आहुति वास्तव में देवताओं को सम्पूर्ण रूप से प्राप्त होती है। देवता आहुतियों से प्रसन्न होते है जिससे आपका मनोरथ यानी आपकी इच्छा पूरी होती है। ज्योतिषशास्त्रियों के अनुसार जिस हवि और आहुति को यज्ञ और हवन के माध्यम से देवता स्वयं आकर ग्रहण करते हैं उसे कभी भी अशुभ मुहुर्त में नहीं करना चाहिए। हवन और यज्ञ का पूर्ण फल प्राप्त करने के लिए ध्यान रखें कि जब भी इसका संकल्प लें या इसे प्रारम्भ करें उससे पहले मुहुर्त जरूर देख लें  

हवन और यज्ञ के लिए शुभ मुहुर्त क्या होना चाहिए व मुहुर्त किस प्रकार ज्ञात करना चाहिए, आइये इसे देखें 

1.आयन विचार
यज्ञ और हवन के लिए नक्षत्र आंकलन करने से पहले अयन का विचार करलें । उत्तरायन को धर्मशास्त्र में अत्यंत शुभ माना   गया है। अयन सूर्य की गति का नाम है, सूर्य जब उत्तर दिशा में गमन करता है तो उत्तरायण होता है। उत्तरायण को देवताओं का दिन माना जाता और दक्षिणायन को रात अत: यज्ञादि कार्य उत्तरायण में करना श्रेष्ठ कहा गया है।

2.नक्षत्र विचार
उत्तरायण में जिस दिन आप यज्ञ या हवन शुरू करें उस दिन नक्षत्रों की स्थिति का आंकलन करलें। विशाखा  कृतिका उत्तराफाल्गुनी उत्तराषाढ़ा  उत्तराभाद्रपद  रोहिणी, रेवती  मृगशि  ज्येष्ठा और पुष्य नक्षत्र में से कोई नक्षत्र दिवस जिस दिन हो आप यज्ञ का श्रीगणेश कर सकते हैं अर्थात यज्ञ शुरू कर सकते हैं।

2.लग्न आंकलन
यज्ञ और हवन के लिए शुभ लग्न मुहुर्त का विचार करना चाहिए । इस सम्बन्ध में बताया जाता है कि जब लग्न अथवा नवमांश में कर्क, मकर, कुम्भ अथवा मीन राशि हो और प्रथम, तृतीय, चतुर्थ, पंचम, षष्टम, सप्तम, नवम, दशम, एकादश भावों में सूर्य, चन्द्र, मंगल, बृहस्पति हो तथा 8वां भाव खाली हो तो उत्तम होता है।

3.तिथि आंकलन
तिथि के विषय में ज्योतिषशास्त्र कहता है कि चतुर्थ, नवम, चतुर्दशी तिथियां रिक्ता तिथि होती है. अत: इन तिथियों में हवन और यज्ञ नहीं करना चाहिए। इन तिथियों के अलावा किसी भी तिथि में यज्ञ किया जा सकता है।

4.ग्रह आंकलन
ज्योतिष सिद्धान्त के अनुसार जिस दिन चन्द्र, मंगल, बृहस्पति और शुक्र नीचस्थ हों या अस्त हों उस दिन यज्ञ और हवन नहीं करना चाहिए।

गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

सर्व-संकट-निवारण ‘रुद्राष्टक’ का नित्य पाठ करें।


  Rudrastak Path

॥ श्रीरुद्राष्टकम् ॥
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् ।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ॥ १॥
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम् ।
करालं महाकाल कालं कृपालं गुणागार संसारपारं नतोऽहम् ॥ २॥
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं मनोभूत कोटिप्रभा श्री शरीरम् ।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गङ्गा लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा ॥ ३॥
चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥ ४॥
प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम् ।
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम् ॥ ५॥
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी ।
चिदानन्द संदोह मोहापहारी प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥ ६॥
न यावत् उमानाथ पादारविन्दं भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ।
न तावत् सुखं शान्ति सन्तापनाशं प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम् ॥ ७॥
न जानामि योगं जपं नैव पूजां नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम् ।
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो ॥ ८॥
रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये ।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥
॥ इति श्रीगोस्वामितुलसीदासकृतं श्रीरुद्राष्टकं संपूर्णम् ॥
विशेषः- उक्त ‘रुद्राष्टक’ को स्नानोपरान्त भीगे कपड़े सहित शिवजी के सामने सस्वर पाठ करने से किसी भी प्रकार का शाप या संकट कट जाता है। यदि भीगे कपड़े सहित पाठ की सुविधा न हो, तो घर पर या शिव-मन्दिर में भी तीन बार, पाचँ बार, आठ बार पाठ करके मनोवाञ्छित फल पाया जा सकता है। यह सिद्ध प्रयोग है। विशेषकर ‘नाग-पञ्चमी’ पर रुद्राष्टक का पाठ विशेष फलदायी है।

हठयोग के आचार्य गुरु गोरखनाथ जी महाराज







गोरखनाथश् या गोरक्षनाथ जी महाराज ११वी से १२वी शताब्दी के नाथ योगी थे। गुरु गोरखनाथ जी ने पूरे भारत का भ्रमण किया और अनेकों ग्रन्थों की रचना की। गोरखनाथ जी का मन्दिर उत्तर प्रदेश के गोरखपुर नगर मे स्थित है। गोरखनाथ के नाम पर इस जिले का नाम गोरखपुर पडा है। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) थे। इन दोनों ने नाथ सम्प्रदाय को सुव्यवस्थित कर इसका विस्तार किया। इस सम्प्रदाय के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है। गुरु गोरखनाथ हठयोग के आचार्य थे। कहा जाता है कि एक बार गोरखनाथ समाधि में लीन थे। इन्हें गहन समाधि में देखकर माँ पार्वती ने भगवान शिव से उनके बारे में पूछा। शिवजी बोले, लोगों को योग शिक्षा देने के लिए ही उन्होंने गोरखनाथ के रूप में अवतार लिया है। इसलिए गोरखनाथ को शिव का अवतार भी माना जाता है।
इन्हें चैरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। इनके उपदेशों में योग और शैव तंत्रों का सामंजस्य है। ये नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखनाथ की लिखी गद्य-पद्य की चालीस रचनाओं का परिचय प्राप्त है। इनकी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात् तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान को अधिक महत्व दिया है। गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात् समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है। गोरखनाथ के जीवन से सम्बंधित एक रोचक कथा इस प्रकार है- एक राजा की प्रिय रानी का स्वर्गवास हो गया। शोक के मारे राजा का बुरा हाल था। जीने की उसकी इच्छा ही समाप्त हो गई। वह भी रानी की चिता में जलने की तैयारी करने लगा। लोग समझा-बुझाकर थक गए पर वह किसी की बात सुनने को तैयार नहीं था। इतने में वहां गुरु गोरखनाथ आए। आते ही उन्होंने अपनी हांडी नीचे पटक दी और जोर-जोर से रोने लग गए। राजा को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने सोचा कि वह तो अपनी रानी के लिए रो रहा है, पर गोरखनाथ जी क्यों रो रहे हैं। उसने गोरखनाथ के पास आकर पूछा, श्महाराज, आप क्यों रो रहे हैं?श् गोरखनाथ ने उसी तरह रोते हुए कहा, श्क्या करूं? मेरा सर्वनाश हो गया। मेरी हांडी टूट गई है। मैं इसी में भिक्षा मांगकर खाता था। हांडी रे हांडी।श् इस पर राजा ने कहा, श्हांडी टूट गई तो इसमें रोने की क्या बात है? ये तो मिट्टी के बर्तन हैं। साधु होकर आप इसकी इतनी चिंता करते हैं।श् गोरखनाथ बोले, श्तुम मुझे समझा रहे हो। मैं तो रोकर काम चला रहा हूं तुम तो मरने के लिए तैयार बैठे हो।श् गोरखनाथ की बात का आशय समझकर राजा ने जान देने का विचार त्याग दिया। कहा जाता है कि राजकुमार बप्पा रावल जब किशोर अवस्था में अपने साथियों के साथ राजस्थान के जंगलों में शिकार करने के लिए गए थे, तब उन्होंने जंगल में संत गुरू गोरखनाथ को ध्यान में बैठे हुए पाया। बप्पा रावल ने संत के नजदीक ही रहना शुरू कर दिया और उनकी सेवा करते रहे। गोरखनाथ जी जब ध्यान से जागे तो बप्पा की सेवा से खुश होकर उन्हें एक तलवार दी जिसके बल पर ही चित्तौड़ राज्य की स्थापना हुई।
गोरखनाथ जी ने नेपाल और पाकिस्तान में भी योग साधना की। पाकिस्तान के सिंध प्रान्त में स्थित गोरख पर्वत का विकास एक पर्यटन स्थल के रूप में किया जा रहा है। इसके निकट ही झेलम नदी के किनारे राँझा ने गोरखनाथ से योग दीक्षा ली थी। नेपाल में भी गोरखनाथ से सम्बंधित कई तीर्थ स्थल हैं। उत्तरप्रदेश के गोरखपुर शहर का नाम गोरखनाथ जी के नाम पर ही पड़ा है। यहाँ पर स्थित गोरखनाथ जी का मंदिर दर्शनीय है। गुरु गोरखनाथ जी के नाम से ही नेपाल के गोरखाओं ने नाम पाया। नेपाल में एक जिला है गोरखा, उस जिले का नाम गोरखा भी इन्ही के नाम से पड़ा। माना जाता है कि गुरु गोरखनाथ सबसे पहले यही दिखे थें। गोरखा जिला में एक गुफा है जहाँ गोरखनाथ का पग चिन्ह है और उनकी एक मुर्ती भी है। यहाँ हर साल वैशाख पुर्णिमा को एक उत्सव मनाया जाता है जिसे रोट महोत्सव कहते है और यहाँ मेला भी लगता है। हिन्दू धर्म, दर्शन, अध्यात्म और साधना के अन्तर्गत विभिन्न सम्प्रदायों और मत-मतान्तरों में प्रमुख स्थान रखने वाले नाथ सम्प्रदाय की उत्पत्ति आदिनाथ भगवान शिव द्वारा मानी जाती है। शिव से जो तत्वज्ञान मत्स्येन्द्र नाथ ने प्राप्त किया उसे ही शिष्य बन कर शिवावतार महायोगी गुरु गोरक्षनाथ ने ग्रहण किया
महाकालयोग शास्त्र में स्वयं शिव ने कहा है-श्अहमेवास्मि गोरक्षो मद्रूपं तन्निबोधत! योग-मार्ग प्रचाराय मयारूपमिदं धृतम्श्। भारतीय धर्म साधक-सम्प्रदायों की पतनोन्मुख और विकृत स्थिति के दौर में वामाचारी तांत्रिक साधना चरम पर थी। तब पंचमकारों का खुल कर प्रयोग होता था। भोगवाद शीर्ष पर था। ऐसे समय में महायोगी गोरक्षनाथ ने ब्रह्मचर्य प्रधान योगयुक्त ज्ञान का व्यापक प्रचार-प्रसार किया। उनका मानना था कि सिद्धियों का प्रयोग सर्वजन हिताय के लिए ही होना चाहिए। उनके आचार सम्बन्धी उपदेश योग के सैद्धान्तिक अष्टांग योग की अपेक्षा अधिक व्यावहारिक हैं। नाथ पंथी योगी महायोगी गुरु गोरक्षनाथ को चारों युगों में विद्यमान, अयोनिज, अमरकाय और सिद्ध महापुरुष मानते हैं। उन्होंने भारत के अलावा तिब्बत, मंगोलिया, कंधार, अफगानिस्तान, नेपाल, सिंघल को अपने योग महाज्ञान से आलोकित किया। नाथ सम्प्रदाय की मान्यता के अनुसार गोरक्षनाथ सतयुग में पेशावर, त्रेता में गोरखपुर, द्वापर में हरमुज (द्वारिका) और कलियुग में गोरखमढ़ी (महाराष्ट्र) में आविभरूत हुए। जोधपुर नरेश महाराजा मानसिंह द्वारा विरचित श्श्रीनाथ तीर्थावलीश् के अनुसार प्रभास क्षेत्र में श्रीकृष्ण और रुक्मिणी के विवाह में कंकण बंधन गुरु गोरक्षनाथ की कृपा से ही हुआ था। यद्यपि वैदिक साधना के साथ समानान्तर रूप से प्रवाहित तांत्रिक साधना का समान रूप से शैव, शाक्त, जैन, वैष्णव आदि पर प्रभाव पड़ा, तथापि उनसे सदाचार के नियमों का पालन यथाविधि नहीं हो सकता। चतुर्दिक फैले हुए अनाचार को देख कर गोरखनाथ ने ब्रह्मचर्य प्रधान योगयुक्त ज्ञान का व्यापक प्रचार किया। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास को लिखना पड़ा- गोरख भगायो जोगु, भगति भगायो लोगु। भक्ति को भगाने वाले संबोधन से तात्पर्य कदाचित साकारोपासना से है। गुरु गोरखनाथ की भक्ति मुख्य रूप से केवल गुरु तक सीमित है। उन्होंने भक्ति का कहीं विरोध नहीं किया। तुलसी दास के कथन से एक बात स्पष्ट है कि यदि गोरखनाथ जी न होते तो संत साहित्य न होता। गुरु गोरक्षनाथ और नाथ पंथ की योग साधना एवं क्रिया कलापों की प्रतिक्रिया ही सभी निगरुण एवं सगुणमार्गी सन्तों के साहित्य में स्पष्ट होती है। उस प्रतिक्रिया के प्रवाह में प्राचीन जातिवाद, वर्णाश्रम धर्म, अस्पृश्यता, ऊँचनीच का भेदभाव मिट गया। योग मार्ग के गुह्य सिद्धान्तों को साकार करके जन भाषा में व्यक्त एवं प्रचलित करना गोरखनाथ जी का समाज के प्रति सबसे बड़ा योगदान था। उनके विराट व्यक्तित्व के कारण ही अनेक भारतीय तथा अभारतीय सम्प्रदाय नाथ पंथ में अन्तर्मुक्त हो गए। उनके योग द्वारा सिद्धि की प्राप्ति संयमित जीवन और प्राणायाम से परिपक्व देह की प्राप्ति, अन्त में नादावस्था की स्थिति में दिव्य अनुभूति और सबसे समत्व का भाव आदि विशिष्टताओं ने तत्कालीन समाज एवं साधना पद्धतियों को अपने में लपेट लिया। यही कारण था कि जायसी ने गुरु गोरक्षनाथ की महिमा में कहा- श्जोगी सिद्ध होई तब जब गोरख सौ भेंटश्। कबीर ने भी गोरक्षनाथ जी की अमरता का वर्णन इस प्रकार किया- श्कांमणि अंग विरकत भया, रत भया हरि नाहि। साषी गोरखनाथ ज्यूं,अमर भये कलि माहिश्।। गोरखनाथ जी एवं नाथ सन्तों का ज्ञान किसी शास्त्र-पुराण नहीं अपितु सहज लोकानुभव और लोक व्यवहार का था, जिसे वह जी और भोग रहे थे क्योंकि ब्रह्मचर्य, आसन, प्राणायाम, मुद्राबन्ध, सिद्धावस्था के विविध अनुभव ऐसा कुछ भी नहीं जिसके व्यवहार को छोड़ कर शास्त्र का आधार लेना पड़े। उनका लोकानुभव यज्ञ और पण्डित, ऊंच-नीच आदि की विभाजक रेखा नहीं खींचता। वह मनुष्य मात्र के लिए है। गोरखनाथ जी द्वारा विर्निदिष्ट तत्वविचार तथा योग साधना को आज भी उसी रूप में समझा जा सकता है। नाथ सम्प्रदाय को गुरु गोरक्षनाथ ने भारतीय मनोवृत्त के अनुकूल बनाया। उसमें जहाँ एक ओर धर्म को विकृत करने वाली समस्त परम्परागत रूढि़यों का कठोरता से विरोध किया, वहीं सामान्य जन को अधिकाधिक संयम और सदाचार के अनुशासन में रख कर आध्यात्मिक अनुभूतियों के लिए योग मार्ग का प्रचार-प्रसार किया। उनकी साधना पद्धति का संयम एवं सदाचार से सम्बन्धित व्यावहारिक स्वरूप जन-जन मे ंइतना लोकप्रिय हो गया था कि विभिन्न धर्मावलम्बियों, मतावलम्बियों ने अपने धर्म एवं मत को लोकप्रिय बनाने के लिए नाथ पंथ की साधना का मनचाहा प्रयोग किया।नाथ पंथ की योग साधना आज भी प्रासंगिक है। विभिन्न प्रकार की सामाजिक-शारीरिक समस्याओं से मुक्ति दिलाने में सक्षम 
Guru Gorakhnath ji (गुरु गोरखनाथ जी) सिद्ध गोरक्षनाथ को प्रणाम सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथपंथियों की हठयोग साधना आरम्भ हुई। इस पंथ को चलाने वाले मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) तथा गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) माने जाते हैं। इस पंथ के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है। कहा यह भी जाता है कि सिद्धमत और नाथमत एक ही हैं। गोरक्षनाथ के जन्मकाल पर विद्वानों में मतभेद हैं। राहुल सांकृत्यायन इनका जन्मकाल 845 ई. की 13वीं सदी का मानते हैं। नाथ परम्परा की शुरुआत बहुत प्राचीन रही है, किंतु गोरखनाथ से इस परम्परा को सुव्यवस्थित विस्तार मिला। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ थे। दोनों को चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। गुरु गोरखनाथ को गोरक्षनाथ भी कहा जाता है। इनके नाम पर एक नगर का नाम गोरखपुर है। गोरखनाथ नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखपंथी साहित्य के अनुसार आदिनाथ स्वयं भगवान शिव को माना जाता है। शिव की परम्परा को सही रूप में आगे बढ़ाने वाले गुरु मत्स्येन्द्रनाथ हुए। ऐसा नाथ सम्प्रदाय में माना जाता है। गोरखनाथ से पहले अनेक सम्प्रदाय थे, जिनका नाथ सम्प्रदाय में विलय हो गया। शैव एवं शाक्तों के अतिरिक्त बौद्ध, जैन तथा वैष्णव योग मार्गी भी उनके सम्प्रदाय में आ मिले थे। गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणीधान को अधिक महत्व दिया है। इनके माध्‍यम से ही उन्होंने हठयोग का उपदेश दिया। गोरखनाथ शरीर और मन के साथ नए-नए प्रयोग करते थे। जनश्रुति अनुसार उन्होंने कई कठ‍िन (आड़े-त‍िरछे) आसनों का आविष्कार भी किया। उनके अजूबे आसनों को देख लोग अ‍चम्भित हो जाते थे। आगे चलकर कई कहावतें प्रचलन में आईं। जब भी कोई उल्टे-सीधे कार्य करता है तो कहा जाता है कि 'यह क्या गोरखधंधा लगा रखा है।' गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है
सिद्ध योगी : गोरखनाथ के हठयोग की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले सिद्ध योगियों में प्रमुख हैं :- चौरंगीनाथ, गोपीनाथ, चुणकरनाथ, भर्तृहरि, जालन्ध्रीपाव आदि। 13वीं सदी में इन्होंने गोरख वाणी का प्रचार-प्रसार किया था। यह एकेश्वरवाद पर बल देते थे, ब्रह्मवादी थे तथा ईश्वर के साकार रूप के सिवाय शिव के अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं मानते थे। नाथ सम्प्रदाय गुरु गोरखनाथ से भी पुराना है। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। पूर्व में इस समप्रदाय का विस्तार असम और उसके आसपास के इलाकों में ही ज्यादा रहा, बाद में समूचे प्राचीन भारत में इनके योग मठ स्थापित हुए। आगे चलकर यह सम्प्रदाय भी कई भागों में विभक्त होता चला गया।
गोरखनाथ जी की जानकारी Om Siva Goraksa Yogi गोरक्षनाथ जी नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक गोरक्षनाथ जी के बारे में लिखित उल्लेख हमारे पुराणों में भी मिलते है। विभिन्न पुराणों में इससे संबंधित कथाएँ मिलती हैं। इसके साथ ही साथ बहुत सी पारंपरिक कथाएँ और किंवदंतियाँ भी समाज में प्रसारित है। उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल, बंगाल, पश्चिमी भारत, सिंध तथा पंजाब में और भारत के बाहर नेपाल में भी ये कथाएँ प्रचलित हैं। ऐसे ही कुछ आख्यानों का वर्णन यहाँ किया जा रहा हैं। 1. गोरक्षनाथ जी के आध्यात्मिक जीवन की शुरूआत से संबंधित कथाएँ विभिन्न स्थानों में पाई जाती हैं। इनके गुरू के संबंध में विभिन्न मान्यताएँ हैं। परंतु सभी मान्यताएँ उनके दो गुरूऑ के होने के बारे में एकमत हैं। ये थे-आदिनाथ और मत्स्येंद्रनाथ। चूंकि गोरक्षनाथ जी के अनुयायी इन्हें एक दैवी पुरूष मानते थे, इसीलिये उन्होनें इनके जन्म स्थान तथा समय के बारे में जानकारी देने से हमेशा इन्कार किया। किंतु गोरक्षनाथ जी के भ्रमण से संबंधित बहुत से कथन उपलब्ध हैं। नेपालवासियों का मानना हैं कि काठमांडु में गोरक्षनाथ का आगमन पंजाब से या कम से कम नेपाल की सीमा के बाहर से ही हुआ था। ऐसी भी मान्यता है कि काठमांडु में पशुपतिनाथ के मंदिर के पास ही उनका निवास था। कहीं-कहीं इन्हें अवध का संत भी माना गया है।
4.वर्तमान मान्यता के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ को श्री गोरक्षनाथ जी का गुरू कहा जाता है। कबीर गोरक्षनाथ की 'गोरक्षनाथ जी की गोष्ठी ' में उन्होनें अपने आपको मत्स्येंद्रनाथ से पूर्ववर्ती योगी थे, किन्तु अब उन्हें और शिव को एक ही माना जाता है और इस नाम का प्रयोग भगवान शिव अर्थात् सर्वश्रेष्ठ योगी के संप्रदाय को उद्गम के संधान की कोशिश के अंतर्गत किया जाता है। 5. गोरक्षनाथ के करीबी माने जाने वाले मत्स्येंद्रनाथ में मनुष्यों की दिलचस्पी ज्यादा रही हैं। उन्हें नेपाल के शासकों का अधिष्ठाता कुल गुरू माना जाता हैं। उन्हें बौद्ध संत (भिक्षु) भी माना गया है,जिन्होनें आर्यावलिकिटेश्वर के नाम से पदमपवाणि का अवतार लिया। उनके कुछ लीला स्थल नेपाल राज्य से बाहर के भी है और कहा जाता है लि भगवान बुद्ध के निर्देश पर वो नेपाल आये थे। ऐसा माना जाता है कि आर्यावलिकिटेश्वर पद्मपाणि बोधिसत्व ने शिव को योग की शिक्षा दी थी। उनकी आज्ञानुसार घर वापस लौटते समय समुद्र के तट पर शिव पार्वती को इसका ज्ञान दिया था। शिव के कथन के बीच पार्वती को नींद आ गयी, परन्तु मछली (मत्स्य) रूप धारण किये हुये लोकेश्वर ने इसे सुना। बाद में वहीं मत्स्येंद्रनाथ के नाम से जाने गये। 6. एक अन्य मान्यता के अनुसार श्री गोरक्षनाथ के द्वारा आरोपित बारह वर्ष से चले आ रहे सूखे से नेपाल की रक्षा करने के लिये मत्स्येंद्रनाथ को असम के कपोतल पर्वत से बुलाया गया था।
7.एक मान्यता के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ को हिंदू परंपरा का अंग माना गया है। सतयुग में उधोधर नामक एक परम सात्विक राजा थे। उनकी मृत्यु के पश्चात् उनका दाह संस्कार किया गया परंतु उनकी नाभि अक्षत रही। उनके शरीर के उस अनजले अंग को नदी में प्रवाहित कर दिया गया, जिसे एक मछली ने अपना आहार बना लिया। तदोपरांत उसी मछ्ली के उदर से मत्स्येंद्रनाथ का जन्म हुआ। अपने पूर्व जन्म के पुण्य के फल के अनुसार वो इस जन्म में एक महान संत बने। 8.एक और मान्यता के अनुसार एक बार मत्स्येंद्रनाथ लंका गये और वहां की महारानी के प्रति आसक्त हो गये। जब गोरक्षनाथ जी ने अपने गुरु के इस अधोपतन के बारे में सुना तो वह उसकी तलाश मे लंका पहुँचे। उन्होंने मत्स्येंद्रनाथ को राज दरबार में पाया और उनसे जवाब मांगा । मत्स्येंद्रनाथ ने रानी को त्याग दिया,परंतु रानी से उत्पन्न अपने दोनों पुत्रों को साथ ले लिया। वही पुत्र आगे चलकर पारसनाथ और नीमनाथ के नाम से जाने गये,जिन्होंने जैन धर्म की स्थापना की। 9.एक नेपाली मान्यता के अनुसार, मत्स्येंद्रनाथ ने अपनी योग शक्ति के बल पर अपने शरीर का त्याग कर उसे अपने शिष्य गोरक्षनाथ की देखरेख में छोड़ दिया और तुरंत ही मृत्यु को प्राप्त हुए और एक राजा के शरीर में प्रवेश किया। इस अवस्था में मत्स्येंद्रनाथ को लोभ हो आया। भाग्यवश अपने गुरु के शरीर को देखरेख कर रहे गोरक्षनाथ जी उन्हें चेतन अवस्था में वापस लाये और उनके गुरु अपने शरीर में वापस लौट आयें।

क्या है गायत्री मंत्र का अर्थ ?




गायत्री गीता (गायत्री महाविज्ञान भाग-२) के अनुसार गायत्री मन्त्र के नौ शब्दों में सन्निहित सूत्र इस प्रकार है-

१. तत्- यह परमात्मा के उस जीवन्त अनुशासन का प्रतीक है, जन्म और मृत्यु जिसके ताने-बाने हैं । इसे आस्तिकता-ईश्वर निष्ठा के सहारे जाना जाता है । उपासना इसका आधार है ।

२. सविर्तु- सविता, शक्ति उत्पादक केन्द्र है । साधक में शक्ति विकास का क्रम चलना चाहिए । यह जीवन साधना से साध्य है ।

३. वरेण्यं- श्रेष्ठता का वरण, आदशर्-निष्ठा, सत्य, न्याय, ईमानदारी के रूप में यह भाव फलित होता है ।

४. भर्गो- विकारनाशक तेज है, जो मन्यु साहस के रूप में उभरता और निर्मलता, निर्भयता के रूप में फलित होता है ।

५. देवस्य- दिव्यतावर्द्धक है । सन्तोष, शान्ति, निस्पृहता, संवेदना, करुणा आदि के रूप में प्रकट होता है ।

६. धीमहि- सद्गुण धारण का गुण, जो पात्रता विकास और समृद्धिरूप में फलित होता है ।

७. धियो- दिव्य मेधा, विवेक का प्रतीक शब्द है, समझदारी, विचारशीलता, निर्णायक क्षमता आदि का संवर्द्धक है ।

८. यो नः- दिव्य अनुदानों के सुनियोजन, संयम का प्रतीक है । धैर्य, ब्रह्मचर्यादि का उन्नायक है ।

९. प्रचोदयात्- दिव्य प्रेरणा, आत्मीयताजन्य सेवा साधना, सत्कर्त्तव्य निष्ठा का विकासक है ।

रावण- एक अनछुआ परिचय



हे महावीर , पराक्रमी, महाज्ञानी, महाभक्त, न्यायप्रिय, अपनों से प्रेमभाव रखने वाले , अपनी प्रजा को पुत्र से ज्यादा प्रेम करने वाले, धर्म आचरण रखने वाले,
अपने शत्रुओं को भयभीत रखने वाले, वेदांत प्रिय त्रिलोकस्वामी रावण आपकी सदा जय हो !

                         हे महावीर आपके समक्ष मैं नासमझ अनजाना बालक आपसे सहायता मांग रहा हूँ । हे रावण मेरे देश को बचा लो उन दुष्ट देवता रूपी नेताओं से जो हर साल आपके पुतले को जलाकर आपको मार रहे हैं और आपको मरा समझ अपने को अजेय मान रहे हैं । हे पराक्रमी दसशीशधारी आज मेरे देश को आपकी सख्त जरूरत आन पडी है । जनता त्राही त्राही कर रही है ओर राजशासन इत्मीनान से भ्रष्टाचार, व्याभिचार और धर्मविरोधी कार्यों में लगा हुआ ।
हे रावण मुझे आपकी सहायता चाहिये इस देश में धर्म को बचाने के लिये , उस धर्म को जिसे निभाने के लिये जिसमें आप स्वयं पुरोहित बनकर राम के समक्ष बैठकर अपनी मृत्यु का संकल्प करवाए थे । आज हमारे राजमंत्री अपने को बचाने के लिये प्रजा की आहूति दे रहे हैं । हे रावण आप जिस राम के हाथों मुक्ति पाने के लिये अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिये वही राम आज अपने ही देश में, अपनी ही जन्मस्थली को वापस पाने के लिये इस देश के न्यायालय में खडे हैं । हे रावण अब राम में इतना सामर्थ्य नही है कि वह इस देश को बचा सके इसलिये आज हमें आपकी आवश्यकता है ।
                     हे दशग्रीव हम बालक नादान है जो आपकी महिमा और ज्ञान को परे रखकर अब तक अहंकार को ना जला कर मिटाकर आपको ही जलाते आ रहे हैं । हे परम ज्ञान के सागर, संहिताओं के रचनाकर अब हमें समझ आ रहा है कि जो दक्षिणवासी आप पर श्रद्धा रखते आ रहे हैं वो हम लोगों से बेहतर क्यों हैं । हे त्रिलोकी सम्राट हमें अपनी शरण में ले लो और केवल दक्षिण को छोड समस्त भारत भूमि की रक्षा करने आ जाओ । हे वीर संयमी आपने जिस सीता को अपने अंतःपुर मे ना रख कर अशोक वाटिका जैसी सार्वजनिक जगह पर रखे ताकि कोई आप पर कटाक्ष ना कर सके वही सीता आज सार्वजनिक बाग बगीचों में भी लज्जाहिन होने में गर्व महसूस कर रही है ।
        हे शिवभक्त मेरे देश में यथा राजा तथा प्रजा का वेदकथन अभी चरितार्थ नही हो पाया है अभी प्रजा में आपका अंश बाकि है लेकिन हे प्रभो ये रामरूपी राजनेता , प्रजा के भीतर बसे रावण को पूरी तरह से समाप्त करने पर तुले हुए हैं ।
       त्राहीमाम् त्राहीमाम् ……. हे राक्षसराज रावण हमारी इन कपटी, ढोंगी रामरूपी नेताओं से रक्षा करो ।
                                                              ।। रावण ।।
                                ठीक है की मैं जो कह रहा हूँ वह गलत हो सकता है लेकिन क्या कोई इस बात को सोचनें की जहमत उठाने को तैय्यार है की रावण का पुतला हम क्यों जलाते हैं या जलते रावण का पुतला जला कर खुशीयां क्यों मनाते हैं ?  हम रावण का पुतला केवल इसलिये जलाते हैं क्योंकि हमें केवल त्यौहार मनानें का शौक रहा है । हर परंपरा को निभाने की आदत में शुमार होकर हम लोग कई रस्मों को बिना जाने पहचानें , सोचे समझे उसमें सम्मिलित हो जाते हैं । रावण को दशानन क्यों कहा जाता है इसके बारे में बडे ही हास्पद तरीके से रावण के दस सिरों को बनाकर काम क्रोध लोभ वगैरह वगैरह का नाम दे दिया जाता है , जबकि हकीकत ये हैं की रावण को दशानन कहने वाले राम थे और उन्होने उसे दशानन इसलिये कहे थे क्योंकि रावण का दसों दिशाओं पर अधिकार था । (पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, वायव्य, नैऋत्य, आग्नेय, आकाश और पाताल) आकाश (स्वर्ग) पर इंद्रजीत, पाताल में अहिरावण औऱ बाकी आठ दिशाओं का नियंत्रण स्वयं रावण के पास था । ये बातें आजकल कोई नही समझाता क्योंकि इससे लोगों का त्यौहार फीका पड जाएगा ।
                                           क्या किसी नें यह सोचने की जहमत उठाई की रावण नें सीता को अपने अंतःपुर में ना रख कर अशोक वाटिका जैसी सार्वजनिक जगह पर क्यों रखा ?
                           दरअसल सीता रावण की पुत्री  थी । जब रावण नें मंदोदरी की कोख में कन्या को देखा तो उसनें अपने ज्योतिष से यह जान लिया था की वह कन्या और कोई नही स्वयं माता भगवती का अवतार हैं । चूंकि रावण किसी भी स्त्री का वध नही कर सकता था (कन्या ही क्या रावण के द्वारा किसी की हत्या की गई हो इसका भी प्रमाण नही है, उसनें लंका पर कब्जा केवल इसलिये किया था क्योंकि वह नगरी उसके अऱाध्य शिव नें अपने लिये बनवाए थे ) इसलिये उसनें उस कन्या भ्रूण को राजा जनक ( राजा जनक नें महर्षि गौतम की पत्नि अहिल्या के बलात्कार का दोषी इंद्र को ठहराते हुए हवन में उसकी आहूति बंद करवा दिये थे इसलिये आज भी यज्ञ में इंद्र को आहूति नही दी जाती है ) के राज्य में उस खेत में रख दिया जहां से वह राजा जनक को आसानी से प्राप्त हो जाए ।     रावण नें माँ भगवती को इसलिये अपने राज्य से हटा दिया था क्योंकि वह जानता था की उसके राज्य में जिस तरह की रक्ष तंत्र व्यवस्था है उसमें देवी को वह सम्मानीय स्थान नही मिल पाएगा जिसकी वह हकदार हो सकती थी ।
                                                हनुमान नें पूरे लंका को तहस नहस कर दिये लेकिन रावण और हनुमान के युद्ध का कहीं भी वर्णन नही है और यदि है तो उसका कोई ठोस प्रमाण नही है । दरअसल रावण- हनुमान का युद्ध हो ही नही सकता था क्योंकि हनुमान भगवान शिव के रूद्रावतार थे औऱ रावण को यह ज्ञात था की स्वयं शिव राम की सहायता कर रहे हैं फिर भला यह कैसे संभव हो सकता था की रावण हनुमान को किसी भी तरह की क्षति पहुंचाता । दरअसल लंकादहन इसलिये करवाई गई क्योंकि उसका निर्माण भी भगवान शंकर नें किये थे और उसका दहन भी उन्होने ही किये अर्थात अपनी ही वस्तु को समाप्त कर दिये ।
                                           सब कहते हैं की राम नें रावण को मार दिये लेकिन किसी नें यह सोचा की जब रावण नें हजार साल ब्रम्हा की तपस्या करके अमरत्व लिया था तो  उसकी स्वयं की आयु क्या रही होगी  । फिर   इतने शक्तिशाली और प्रतापी सम्राट को 24 वर्ष का युवक राम कैसे मार सकता था ।
                                              दरअसल राम को भी रावण को मारने के लिये 24 बार जन्म लेना पडा था । हर युग में जब जब त्रेता युग आता था तब तब राम जन्म लेते थे लेकिन23 युग तक राम की मृत्यु होती रही । तब 24वें युग में राम का पुनः जन्म हुआ तो भगवान शिव नें विष्णु को रावण की मृत्यु के लिये हर संभव सहायता दिये और हनुमान को प्रकट किये । जब राम बडे हुए तो उन्हे ब्रम्हर्षि  विश्वामित्र नें अपने संरक्षण में लेकर युवा राम को सबल राम बना दिये । उन्हे हर तरह के दिव्यात्र और देवास्त्र देने वाले महर्षि विश्वामित्र ही थे ।  बाकि की कहानी तो हर किसी को मालूम है लेकिन एक बात ऐसी भी है जो बहुत ही कम लोगों को ज्ञात है । जब राम लंका के पास रामेश्वरम में धनुषकोटी के पास पहुंचे तो क्रोध में उन्होने समुद्र को जलाने के लिये धनुष उठाए तो समुद्र नें उन्हे पुल बनाने का फार्मुला देने के साथ साथ शिवलिंग की स्थापना करने को भी कहा पुल बनने के बाद राम नें वहीं समुद्र तट पर रेती से शिवलिंग बनाने का प्रयास किये । लेकिन जितनी बार वह शिवलिंग बनाते उतनी बार समुद्र उस शिवलिंग को अपने साथ बहा कर ले जाता तब उन्होने पुनः समुद्र से उपाय पुछे तो समुद्र नें उनसे कहे की हे राम तुम क्षत्रिय हो और जब तक शिवलिंग की स्थापना योग्य पुरोहित के द्वारा नही होगी तब तक वह शिवलिंग मेरा भाग होता है । तब राम नें उनसे पुछे की आप ही बताएं की यहां का योग्य पुरोहित कौन हो सकता हौ तब समुद्र नें मुस्कुरा कर कहे की यहां का सर्वश्रेष्ठ पुरोहित लंका नरेश रावण हैं ।
                                           तब राम नें अपने एक दूत को लंकेश के दरबार में नम्र निवेदन के साथ भेजे । जब दूत दरबार में पहुंचा तो लंकेश अपने दरबार में मंत्रीयों के साथ मंत्रणा कर रहे थे । दूत से लंकेश नें अपना संदेश देने को कहा तो दूत नें इंकार करते हुए कहा की ……. नही महाराज रावण वह संदेशा आपके लिये नही है । यह संदेश जो मैं लेकर आया हूँ वह पुरोहित रावण के लिये है । … दूत के ऐसा कहने पर लंकेश कुछ नही बोले और उठ कर दरबार से बाहर चले गये । कुछ देर बाद दूत को संदेश मिला की भीतर पधारिये । जब दूत अंदर गया तो उसने देखा की एक दिव्य पुरूष सफेद वस्त्र पहने हुए खडा है । दूत नें उस दिव्य पुरूष को प्रणाम किया तो उस दिव्य पुरूष नें मधुर वाणी में पुछा की कहो महाराजा राम के संदेश वाहक … क्या संदेश लाए हो  —
दूत — हे आर्य मैं महाराज राम का संदेश पुरोहित रावण के लिये लाया हूँ ।
दिव्य पुरूष – तुम अपना संदेशा मुझे दे सकते हो .., मैं ही हूँ पुरोहित रावण ।
दूत –  महाराजा रावण आप …
रावण –  नही… महाराजा रावण अपने महल में हुआ करता है मैं यहां पुरोहित रावण हूँ और तुम इस समय मेरे साधना कक्ष के अतिथि गृह में हो .. कहो क्या संदेसा है महाराज राम का ।
दूत – पुरोहित जी अयोध्यानगरी के राजा रामचंद्रजी को महापराक्रमी महाराजा रावण से युद्ध करने जाना है और युद्ध का समय नजदीक है किंतु हमारे महाराज को भगवान शिव का आशिर्वाद लेने के लिये यज्ञ करवाना है जिसके पुरोहित की आवश्यकता है । हो पुरोहित जी क्या आप महाराज राम के यज्ञ में यजमानी करनें की कृपा करेंगे ।
रावण – यदि किसी और के पूजन की बात होती तो मैं नही जाता लेकिन यहां मेरे अराध्य शिव के पूजन की बात है और यह मेरा सौभाग्य होगा की मैं महाराज राम के यज्ञ की यजमानी कर सकूं । मैं कल पातः 4 बजे पहुंच जाऊंगा । और हां … अपने महाराज से कहना की मैं अपने अराध्य की पूजन सामग्री लेता आऊंगा ।
                                             इस तरह से पुरोहित रावण नें दूत को विदा कर दिये । अगले दिन प्रातः जब राम लक्ष्मण समुद्र तट पर बैठे पुरोहितच का इंतजार कर रहे थे । लक्ष्मण रावण से किसी तरह का धोखा होने पर अपने धनुष की प्रत्यंचा चढाए थे । कुछ समय बाद लंका से दिव्य तीव्र प्रकाश अपनी ओर आता देख दोनो अपने स्थान पर खडे हो गये । जब पुरोहित रावण वहां पहुंचे तो सबसे पहले राम नें उन्हे प्रणाम करके बैठने को आसन दिये । यज्ञ प्ररंभ हुआ । पुरोहित नें संकल्प छुडवाये की यह यज्ञ राजा रामचंद्र  की विजय के लिये आयोजित है । हे भगवान शिव आफ अफनी कृपा बनाए रखें और यह आशीष दें की राम की जय हो और रावण मृत्यु को प्राप्त हो ।
                                                      जब रावण यह संकल्प करवा रहे थे तो लक्ष्मण पूरे ध्यान से सुन रहे थे की कहीं राम की जगह रावण का संल्प ना छुट जाए । जब यज्ञ सम्पन्न हो गया तो रावण नें लक्ष्मण को बलाकर कहे की लक्ष्मण यहां पर मैं पुरोहित रावण हूँ माहारजा रावण नही इसलिये अपनी शंका कुशंका को परे रखो ।
                                                   औऱ अंत में —– राम नें रावण को ब्रम्हास्त्र से इसलिये मारे क्योंकि रावण को ब्रम्हा से अमरत्व प्राप्त हुआ था और राम नही चाहते थे की ब्रम्हा का अपमान हो इसलिये जब ब्रम्हा को अपने तीर पर बैठाकर राम नें रावण के पास भेजे तो ब्रम्हा नें रावण को जाकर कहे की हे महान तपस्वी रावण मैने आपको जो अमरता प्रदान किया था भगवान शिव व विष्णु के निवेदन पर वह अमरता वापस लेता हूँ । कृपया आप अपनी नश्वर देह का त्याग करने की कृपा करें ।
 …….. …..और रावण नें ब्रम्हा को उनका अमृत कुंड वापस कर दिये …