बुधवार, 11 दिसंबर 2019

भगवान दत्तात्रेय ने बनाए 24 ‘गुरु’, जानें क्यों

एक समय सारे वेद नष्ट हो गए। वैदिक कर्मों एवं यज्ञ आदि का लोप हो गया। चारों वर्ण एक में मिल गए और सर्वत्र वर्णसंकरता फैल गई। धर्म शिथिल हो गया और अधर्म दिनों दिन बढ़़ऩे लगा। सत्य दब गया तथा सब ओर असत्य ने अपना सिक्का जमा लिया। प्रजा क्षीण होने लगी। ऐसे समय में अत्रि पत्नी अनुसूया से प्रकट होकर दत्तात्रेय जी ने यज्ञ और कर्मानुष्ठान की विधि सहित सम्पूर्ण वेदों का पुनरुद्धार किया और पुन: चारों वर्णों को पृथक-पृथक अपनी-अपनी मर्यादा में स्थापित किया।

(1)  पृथ्वी- धूप, शीत, वर्षा को धैर्यपूर्वक सहन करने वाली, लोगों द्वारा मल-मूत्र त्यागने व पदाघात आदि पर भी क्रोध न करने वाली, अपनी कक्ष और मर्यादा पर निरंतर नियत गति से घूमने वाली सदैव कर्तव्य परायण पृथ्वी को मैंने अपना प्रथम गुरु माना और उनसे इन सद्गुणों को सीखा। 

(2) पवन- कभी अचल न होकर बैठना, निरंतर गतिशील रहना, संतप्तों को सांत्वना देना, गंध को वहन करना पर स्वयं निर्लिप्त रहना- ये विशेषताएं पवन में पाईं और उन्हें सीखकर उसे गुरु माना।

(3)  आकाश- अनंत विशाल होते हुए भी अनेक ब्रह्मांडों को अपनी गोद में भरे रहने वाले, ऐश्वर्यवान रहते हुए भी रंच मात्र अभिमान न करने वाले आकाश का गुण मुझे बहुत प्रिय लगा। इन गुणों को आचरण में लाने का प्रयत्न करते हुए मैंने उसे गुरु वरण किया।

(4) जल- सबको शुद्ध बनाना, सदा सरल और तरल रहना, आतप को शीतलता में परिवर्तित कर देना, वृक्ष-वनस्पतियों तक को जीवन दान करना आदि महानताएं जल में देखीं तो उसे गुरु मानना ही उचित समझा।

(5) यम- अनुपयोगी को हटा देना, अभिवृद्धि पर नियंत्रण रखना, संसार यात्रा से थके हुओं को विश्राम देने के कार्य में संलग्न यम को पाया तो उसे भी गुरु बना लिया।

(6) अग्नि- निरंतर प्रकाशमान, ऊर्ध्वमुख, संग्रह से दूर रहने वाली, स्पर्श करने वालों को अपना ही रूप बना लेने वाली, समीप रहने वालों को भी प्रभावित करने वाली अग्रि मुझे आदर्श लगी, अत: उसे गुरु वरण किया।

(7) चन्द्रमा- अपने पास प्रकाश न रहने पर भी सूर्य से याचना करके पृथ्वी को चांदनी का दान देते रहने वाला परमार्थी चंद्रमा मुझे सराहनीय लोक सेवक लगा। विपत्ति में सारी कलाएं क्षीण हो जाने पर भी निराश न होकर न बैठना और फिर आगे बढऩे का साहस बार-बार करते रहना, धैर्यवान चंद्रमा का श्रेष्ठ गुण कितना उपयोगी है- यह देखकर उसे मैंने गुरु बनाया।

(8) सूर्य- नियत समय पर अपना नियत कार्य अविचल भाव से निरंतर करते रहना, स्वयं प्रकाशित होना और दूसरों को प्रकाशित करना सूर्य का गुण देखकर उन्हें गुरु माना।

(9) कबूतर- पेड़ के नीचे बिछे हुए जाल में पड़े दाने देखकर लालची कबूतर आलस्यवश अन्यत्र न गया और उतावली में बिना कुछ सोचे-विचारे ललचाया और जाल में फंस कर अपने प्राण गंवा बैठा। उसे गुरु मानकर शिक्षा ग्रहण की कि लोभ और अविवेक से किस प्रकार पतन होता है।

(10) अजगर- शीतकाल में अंग जकड़ जाने के कारण भूखा अजगर मिट्टी खाकर दुॢदन को सहन करता था, उसकी इस सहनशीलता ने मुझे अपना अनुयायी और शिष्य बना लिया।

(11) समुद्र- अपनी मर्यादा से आगे न बढऩे वाला, स्वयं खारा होने पर भी बादलों को मधुर जल दान करने वाले समुद्र को गुरु कैसे न मानता।

(12) पतंगा- लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्राणों की परवाह न करके सदैव अग्रसर होने वाला पतंगा अपनी निष्ठा से गुरु बन मुझे शिक्षा दे रहा था।

(13) मधु मक्खी- पुष्पों का मधुर संचय करके दूसरों के लिए समर्पण करने की जीवन साधना में लगी हुई मधुमक्खी मुझे शिक्षा दे रही थी कि मनुष्य स्वार्थी नहीं, परमार्थी बने।

(14) भौंरा- राम के आसक्त प्राणी किस प्रकार अपने प्राण गंवाता है यह शिक्षा अपने गुरु भौंरा से मैंने सीखी और गांठ बांध ली।

(15) हाथी- कामातुर हाथी किस प्रकार बंधन में बंध गया, यह देखकर मैंने वासना के दुष्परिणामों को समझा और उसे गुरु माना।

(16) मृग, मछली- कानों के विषयों में आसक्त मृग की बधिकों द्वारा पकड़े जाते और जिह्वा की लोलुप मछली को कछुआरे के जाल में तड़पते देखा तो उनसे भी शिक्षा ग्रहण की।

(17) वेश्या- सद्गृहस्थ का आनंद और पतिव्रत धर्म द्वारा परलोक साधन का व्यवहार गंवा कर पश्चाताप से दूसरों को सावधानी का संदेश देने वाली पिंगला वेश्या भी मेरे गुरु पद पर प्रतिष्ठित हुई।

(18) काक- काक पक्षी ने मुझे सिखाया कि धूर्तता और स्वार्थपरता की नीति अंत में हानिकारक होती है। अत: वह भी मेरा गुरु ही है।

(19) अबोध बालक- राग द्वेष, चिंता, काम, क्रोध, लोभ आदि दुर्गुणों से रहित अबोध बालक कितना सुखी और शांत रहता है, उसके समान बनने के लिए बच्चे को अपना आदर्श माना तथा उसे भी गुरु कहा। 

(20) धान कूटती स्त्री- एक स्त्री चूडिय़ां पहने धान कूट रही थी। चूडिय़ां आपस में खनकती थीं। घर आए मेहमानों को इस बात का पता न लगे, इसलिए उसने एक-एक करके हाथों की चूडिय़ां उतार दीं और एक-एक ही रहने दीं। उससे मैंने सीखा कि अनेक कामनाओं के रहते चूडिय़ों की तरह मन में संघर्ष होते रहते हैं पर यदि एक ही लक्ष्य नियत कर लिया जाए तो सभी उद्वेग शांत हो जाएं।

(21) लोहार- लोहार अपनी भट्ठी में लोहे के टूटे-फूटे टुकड़ों को गर्म करके हथौड़े की चोट से कई तरह का सामान बना रहा था, उसे देखकर सीखा कि निरुपयोगी और कठोर प्रतीत होने वाले मनुष्य भी यदि अपने को तपाने और चोट सहने की तैयारी कर लें तो उपयोगी उपकरण बन सकते हैं।

(22) सर्प- सर्प दूसरों को कष्ट देता और प्रत्युतत्तर में सब ओर से त्रास पाता है। उसने मुझे सिखाया कि उद्दण्ड, क्रोधी, आक्रामक और आततायी होना किसी के लिए भी श्रेयस्कर नहीं है।

(23) मकड़ी- मकड़ी की क्रिया को देखकर मुझे सूझा कि अपनी दुनिया हर मनुष्य अपनी भावना के अनुरूप ही गढ़ता है।

(24) भृंगज- भृंगज कीड़ा एक झींगुर को पकड़कर लाया और अपनी भुनभुनाहट से प्रभावित कर उसे अपने समान बना लिया। यह देखकर मैंने सोचा कि एकाग्रता और तन्मयता के द्वारा मनुष्य अपना शारीरिक और मानसिक कायाकल्प कर डालने में भी सफल हो सकता है।

विवेकशील व्यक्ति सामान्य वस्तुओं और घटनाओं से भी शिक्षा ग्रहण करते और अपने जीवन में धारण करते हैं। अतएव उनका विवेक बढ़ता जाता है, यह विवेक ही सब सिद्धियों का मूल कारण है। अविवेकी लोग तो ब्रह्मा के समान गुरु को भी पाकर कुछ लाभ उठा नहीं सकते।    

शनिवार, 27 जुलाई 2019

शिवरात्रि, मनोकामना के अनुसार ऐसे करें शिव की पूजा

शिवरात्रि, मनोकामना के अनुसार ऐसे करें शिव की पूजा


सावन का पवित्र महीना चल रहा है। इस महीने में होने वाली शिवरात्रि को खास माना जाता है। शिवरात्रि 30 जुलाई को मनाई जाएगी, जिसे इस महीने का सबसे पुण्यदायक दिन माना गया है। इस दिन शिव भक्त महादेव का जलाभिषेक कर सुख-समृद्धि और कल्याण की कामना करते हैं। शास्त्रों के अनुसार सावन शिवरात्रि पर जल चढ़ाने से भगवान शिव प्रसन्न होकर अपने भक्तों की सभी मनोकामना पूर्ण करते हैं। साथ ही सावन की शिवरात्रि के साथ ही कई त्योहारों की शुरुआत हो जाती है।सावन में शिव की पूजा का महत्व 
स्वयं भगवान शिव माता पार्वती, गणेश, कार्तिकेय, नंदी और अपने शिवगणों सहित पूरे माह पृथ्वी पर विराजते हैं। शिव जब जीव का संहार करते हैं, तो महाकाल बन जाते हैं, यही शिव महामृत्युंजय बनकर उसी जीव की रक्षा भी करते हैं, तो शंकर बनकर जीव का भरण-पोषण भी करते हैं, यही योगियों के सूक्ष्मतत्व महारूद्र बनकर योगियों-साधकों जीवात्माओं के अंतस्थल में विराजते हैं और रूद्र बनकर महाविनाश लीला भी करते हैं, अर्थात स्वयं शिव ही ब्रह्मा और विष्णु के रूप में एकाकार देवो के देव महादेव बन जाते हैं। इन्ही महादेव को प्रसन्न करने के लिए अच्छे अवसर के रूप में मास शिवरात्रि का पावन पर्व 30 जुलाई को मनाया जाएगा। 
कब मनाई जाएगी शिवरात्रि
वैसे हर महीने की कृष्णपक्ष चतुर्दशी को मास शिवरात्रि होती है, लेकिन सावन और फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को पड़ने वाली शिवरात्रि का खास महत्व होता है। फाल्गुन महीने में पड़ने वाली शिवरात्रि, महाशिवरात्रि के रूप में मनाई जाती है। कहा जाता है कि इस दिन शिव-पार्वती का विवाह हुआ था।
सावन शिवरात्रि की पूजा विधि
ऐसा कहा जाता है कि शिव की सच्चे मन से पूजा करना ही काफी होता है। सच्चे मन से आराधना करने से ही भोलेनाथ प्रसन्न हो जाते हैं।
ऐसे करें अभिषेक
शिवरात्रि के दिन सुबह जल्दी उठकर सबसे पहले स्नान करें। इसके बाद साफ कपड़े पहनकर मंदिर जाएं। मंदिर जाते समय जल, दूध, दही, शहद, घी, चीनी, इत्र, चंदन, केसर, भांग सभी को एक ही बर्तन में साथ ले जाएं और शिवलिंग का अभिषेक करें।
लगाएं शिव को भोग
शिव को गेहूं से बनी चीजें अर्पित करनी चाहिए। ऐसी मान्यता है कि ऐश्वर्य पाने के लिए शिव को मूंग का भोग लगाया जाना चाहिए। वहीं ये भी कहा जाता है कि मनचाहा जीवनसाथी पाने के लिए शिव को चने की दाल का भोग लगाया जाना चाहिए। शिव को तिल चढ़ाने की भी मान्यता है। कहा जाता है कि शिव को तिल चढ़ाने से पापों का नाश होता है।
इस पूजा से महादेव देंगे मोक्ष का महावरदान
संपूर्ण कष्टों और पुनर्जन्म से मुक्ति चाहने वाले मनुष्य को गंगा जल और पंचामृत चढ़ाते हुए 'ॐ नमो भगवते रुद्राय। ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नों रुद्रः प्रचोदयात।' मंत्र को पढ़ते हुए सभी सामग्री जो भी यथा संभव हो, उसे लेकर समर्पण भाव से शिव को अर्पित करें। श्रद्धा भाव और विश्वास के साथ जो भी पूजन आप करेंगे, उससे प्रसन्न होकर महादेव आपकी सभी मनोकामना पूर्ण करेंगे।

गुरुवार, 18 अप्रैल 2019

कार्य~सिद्धि कारक गोरक्षनाथ मंत्र

मन्त्रः-
“ॐ गों गोरक्षनाथ महासिद्धः, सर्व-व्याधि विनाशकः ।
विस्फोटकं भयं प्राप्ते, रक्ष रक्ष महाबल ।। १।।
यत्र त्वं तिष्ठते देव, लिखितोऽक्षर पंक्तिभिः ।
रोगास्तत्र प्रणश्यन्ति, वातपित्त कफोद्भवाः ।। २।।
तत्र राजभयं नास्ति, यान्ति कर्णे जपाः क्षयम् ।
शाकिनी भूत वैताला, राक्षसा प्रभवन्ति न ।। ३।।
नाऽकाले मरणं तस्य, न च सर्पेण दश्यते ।
अग्नि चौर भयं नास्ति, ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं गों ।। ४।।
ॐ घण्टाकर्णो नमोऽस्तु ते ॐ ठः ठः ठः स्वाहा ।।”

विधिः- यह मंत्र तैंतीस हजार या छत्तीस हजार जाप कर सिद्ध करें । इस मंत्र के प्रयोग के लिए इच्छुक उपासकों को पहले गुरु-पुष्य, रवि-पुष्य, अमृत-सिद्धि-योग, सर्वार्त-सिद्धि-योग या दिपावली की रात्रि से आरम्भ कर तैंतीस या छत्तीस हजार का अनुष्ठान करें । बाद में कार्य साधना के लिये प्रयोग में लाने से ही पूर्णफल की प्राप्ति होना सुलभ होता है ।
विभिन्न प्रयोगः- इस को सिद्ध करने पर केवल इक्कीस बार जपने से राज्य भय, अग्नि भय, सर्प, चोर आदि का भय दूर हो जाता है । भूत-प्रेत बाधा शान्त होती है । मोर-पंख से झाड़ा देने पर वात, पित्त, कफ-सम्बन्धी व्याधियों का उपचार होता है ।
१॰ मकान, गोदाम, दुकान घर में भूत आदि का उपद्रव हो तो दस हजार जप तथा दस हजार गुग्गुल की गोलियों से हवन किया जाये, तो भूत-प्रेत का भय मिट जाता है । राक्षस उपद्रव हो, तो ग्यारह हजार जप व गुग्गुल से हवन करें ।
२॰ अष्टगन्ध से मंत्र को लिखकर गेरुआ रंग के नौ तंतुओं का डोरा बनाकर नवमी के दिन नौ गांठ लगाकर इक्कीस बार मंत्रित कर हाथ के बाँधने से चौरासी प्रकार के वायु उपद्रव नष्ट हो जाते हैं ।
३॰ इस मंत्र का प्रतिदिन १०८ बार जप करने से चोर, बैरी व सारे उपद्रव नाश हो जाते हैं तथा अकाल मृत्यु नहीं होती तथा उपासक पूर्णायु को प्राप्त होता है ।
४॰ आग लगने पर इक्कीस बार पानी को अभिमंत्रित कर छींटने से आग शान्त होती है ।
५॰ मोर-पंख से इस मंत्र द्वारा झाड़े तो शारीरिक नाड़ी रोग व श्वेत कोढ़ दूर हो जाता है ।
६॰ कुंवारी कन्या के हाथ से कता सूत के सात तंतु लेकर इक्कीस बार अभिमंत्रित करके धूप देकर गले या हाथ में बाँधने पर ज्वर, एकान्तरा, तिजारी आदि चले जाते हैं ।
७॰ सात बार जल अभिमंत्रित कर पिलाने से पेट की पीड़ा शान्त होती है ।
८॰ पशुओं के रोग हो जाने पर मंत्र को कान में पढ़ने पर या अभिमंत्रित जल पिलाने से रोग दूर हो जाता है । यदि घंटी अभिमंत्रित कर पशु के गले में बाँध दी जाए, तो प्राणि उस घंटी की नाद सुनता है तथा निरोग रहता है ।
९॰ गर्भ पीड़ा के समय जल अभिमंत्रित कर गर्भवती को पिलावे, तो पीड़ा दूर होकर बच्चा आराम से होता है, मंत्र से १०८ बार मंत्रित करे ।
१०॰ सर्प का उपद्रव मकान आदि में हो, तो पानी को १०८ बार मंत्रित कर मकानादि में छिड़कने से भय दूर होता है । सर्प काटने पर जल को ३१ बार मंत्रित कर पिलावे तो विष दूर हो ।