हे महावीर , पराक्रमी, महाज्ञानी,  महाभक्त, न्यायप्रिय, अपनों से प्रेमभाव रखने वाले , अपनी प्रजा को पुत्र  से ज्यादा प्रेम करने वाले, धर्म आचरण रखने वाले,
 अपने शत्रुओं को भयभीत रखने वाले, वेदांत प्रिय त्रिलोकस्वामी रावण आपकी सदा जय हो !
                          हे महावीर आपके समक्ष मैं नासमझ अनजाना बालक  आपसे सहायता मांग रहा हूँ । हे रावण मेरे देश को बचा लो उन दुष्ट देवता  रूपी नेताओं से जो हर साल आपके पुतले को जलाकर आपको मार रहे हैं और आपको  मरा समझ अपने को अजेय मान रहे हैं । हे पराक्रमी दसशीशधारी आज मेरे देश को  आपकी सख्त जरूरत आन पडी है । जनता त्राही त्राही कर रही है ओर राजशासन  इत्मीनान से भ्रष्टाचार, व्याभिचार और धर्मविरोधी कार्यों में लगा हुआ ।
 हे रावण मुझे आपकी सहायता चाहिये इस देश  में धर्म को बचाने के लिये , उस धर्म को जिसे निभाने के लिये जिसमें आप  स्वयं पुरोहित बनकर राम के समक्ष बैठकर अपनी मृत्यु का संकल्प करवाए थे ।  आज हमारे राजमंत्री अपने को बचाने के लिये प्रजा की आहूति दे रहे हैं । हे  रावण आप जिस राम के हाथों मुक्ति पाने के लिये अपने प्राणों को न्यौछावर कर  दिये वही राम आज अपने ही देश में, अपनी ही जन्मस्थली को वापस पाने के लिये  इस देश के न्यायालय में खडे हैं । हे रावण अब राम में इतना सामर्थ्य नही  है कि वह इस देश को बचा सके इसलिये आज हमें आपकी आवश्यकता है ।
                      हे दशग्रीव हम  बालक नादान है जो आपकी महिमा और ज्ञान को परे रखकर अब तक अहंकार को ना जला  कर मिटाकर आपको ही जलाते आ रहे हैं । हे परम ज्ञान के सागर, संहिताओं के  रचनाकर अब हमें समझ आ रहा है कि जो दक्षिणवासी आप पर श्रद्धा रखते आ रहे  हैं वो हम लोगों से बेहतर क्यों हैं । हे त्रिलोकी सम्राट हमें अपनी शरण  में ले लो और केवल दक्षिण को छोड समस्त भारत भूमि की रक्षा करने आ जाओ । हे  वीर संयमी आपने जिस सीता को अपने अंतःपुर मे ना रख कर अशोक वाटिका जैसी  सार्वजनिक जगह पर रखे ताकि कोई आप पर कटाक्ष ना कर सके वही सीता आज  सार्वजनिक बाग बगीचों में भी लज्जाहिन होने में गर्व महसूस कर रही है ।
         हे शिवभक्त मेरे देश में यथा  राजा तथा प्रजा का वेदकथन अभी चरितार्थ नही हो पाया है अभी प्रजा में आपका  अंश बाकि है लेकिन हे प्रभो ये रामरूपी राजनेता , प्रजा के भीतर बसे रावण  को पूरी तरह से समाप्त करने पर तुले हुए हैं ।
        त्राहीमाम् त्राहीमाम् ……. हे राक्षसराज रावण हमारी इन कपटी, ढोंगी रामरूपी नेताओं से रक्षा करो ।
                                                               ।। रावण ।।
                                 ठीक  है की मैं जो कह रहा हूँ वह गलत हो सकता है लेकिन क्या कोई इस बात को  सोचनें की जहमत उठाने को तैय्यार है की रावण का पुतला हम क्यों जलाते हैं  या जलते रावण का पुतला जला कर खुशीयां क्यों मनाते हैं ?  हम रावण का पुतला  केवल इसलिये जलाते हैं क्योंकि हमें केवल त्यौहार मनानें का शौक रहा है ।  हर परंपरा को निभाने की आदत में शुमार होकर हम लोग कई रस्मों को बिना जाने  पहचानें , सोचे समझे उसमें सम्मिलित हो जाते हैं । रावण को दशानन क्यों कहा  जाता है इसके बारे में बडे ही हास्पद तरीके से रावण के दस सिरों को बनाकर  काम क्रोध लोभ वगैरह वगैरह का नाम दे दिया जाता है , जबकि हकीकत ये हैं की  रावण को दशानन कहने वाले राम थे और उन्होने उसे दशानन इसलिये कहे थे क्योंकि  रावण का दसों दिशाओं पर अधिकार था । (पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान,  वायव्य, नैऋत्य, आग्नेय, आकाश और पाताल) आकाश (स्वर्ग) पर इंद्रजीत, पाताल  में अहिरावण औऱ बाकी आठ दिशाओं का नियंत्रण स्वयं रावण के पास था । ये बातें आजकल कोई नही समझाता क्योंकि इससे लोगों का त्यौहार फीका पड जाएगा । 
                                            क्या किसी नें यह सोचने की जहमत उठाई की रावण नें सीता को अपने अंतःपुर में ना रख कर अशोक वाटिका जैसी सार्वजनिक जगह पर क्यों रखा ?
                            दरअसल सीता  रावण की पुत्री  थी । जब रावण नें मंदोदरी की कोख में कन्या को देखा तो  उसनें अपने ज्योतिष से यह जान लिया था की वह कन्या और कोई नही स्वयं माता  भगवती का अवतार हैं । चूंकि रावण किसी भी स्त्री का वध नही कर सकता था  (कन्या ही क्या रावण के द्वारा किसी की हत्या की गई हो इसका भी प्रमाण नही  है, उसनें लंका पर कब्जा केवल इसलिये किया था क्योंकि वह नगरी उसके अऱाध्य  शिव नें अपने लिये बनवाए थे ) इसलिये उसनें उस कन्या भ्रूण को राजा जनक  ( राजा जनक नें महर्षि गौतम की पत्नि अहिल्या के बलात्कार का दोषी इंद्र को  ठहराते हुए हवन में उसकी आहूति बंद करवा दिये थे इसलिये आज भी यज्ञ में  इंद्र को आहूति नही दी जाती है ) के राज्य में उस खेत में रख दिया जहां से  वह राजा जनक को आसानी से प्राप्त हो जाए ।     रावण नें माँ भगवती को  इसलिये अपने राज्य से हटा दिया था क्योंकि वह जानता था की उसके राज्य में  जिस तरह की रक्ष तंत्र व्यवस्था है उसमें देवी को वह सम्मानीय स्थान नही  मिल पाएगा जिसकी वह हकदार हो सकती थी ।
                                                  हनुमान नें पूरे लंका को तहस नहस कर दिये लेकिन रावण और हनुमान के युद्ध  का कहीं भी वर्णन नही है और यदि है तो उसका कोई ठोस प्रमाण नही है । दरअसल  रावण- हनुमान का युद्ध हो ही नही सकता था क्योंकि हनुमान भगवान शिव के  रूद्रावतार थे औऱ रावण को यह ज्ञात था की स्वयं शिव राम की सहायता कर रहे  हैं फिर भला यह कैसे संभव हो सकता था की रावण हनुमान को किसी भी तरह की  क्षति पहुंचाता । दरअसल लंकादहन इसलिये करवाई गई क्योंकि उसका निर्माण भी  भगवान शंकर नें किये थे और उसका दहन भी उन्होने ही किये अर्थात अपनी ही  वस्तु को समाप्त कर दिये ।
                                            सब  कहते हैं की राम नें रावण को मार दिये लेकिन किसी नें यह सोचा की जब रावण  नें हजार साल ब्रम्हा की तपस्या करके अमरत्व लिया था तो  उसकी स्वयं की आयु  क्या रही होगी  । फिर   इतने शक्तिशाली और प्रतापी सम्राट को 24 वर्ष का युवक राम कैसे मार सकता था ।
                                                दरअसल राम को भी रावण को मारने के लिये 24 बार जन्म लेना पडा था । हर युग  में जब जब त्रेता युग आता था तब तब राम जन्म लेते थे लेकिन23 युग तक राम की  मृत्यु होती रही । तब 24वें युग में राम का पुनः जन्म हुआ तो भगवान शिव  नें विष्णु को रावण की मृत्यु के लिये हर संभव सहायता दिये और हनुमान  को प्रकट किये । जब राम बडे हुए तो उन्हे ब्रम्हर्षि  विश्वामित्र नें अपने  संरक्षण में लेकर युवा राम को सबल राम बना दिये । उन्हे हर तरह के  दिव्यात्र और देवास्त्र देने वाले महर्षि विश्वामित्र ही थे ।  बाकि की  कहानी तो हर किसी को मालूम है लेकिन एक बात ऐसी भी है जो बहुत ही कम लोगों  को ज्ञात है । जब राम लंका के पास रामेश्वरम में धनुषकोटी के पास पहुंचे तो  क्रोध में उन्होने समुद्र को जलाने के लिये धनुष उठाए तो समुद्र नें  उन्हे पुल बनाने का फार्मुला देने के साथ साथ शिवलिंग की स्थापना करने को  भी कहा पुल बनने के बाद राम नें वहीं समुद्र तट पर रेती से शिवलिंग बनाने  का प्रयास किये । लेकिन जितनी बार वह शिवलिंग बनाते उतनी बार समुद्र उस  शिवलिंग को अपने साथ बहा कर ले जाता तब उन्होने पुनः समुद्र से उपाय पुछे  तो समुद्र नें उनसे कहे की हे राम तुम क्षत्रिय हो और जब तक शिवलिंग की  स्थापना योग्य पुरोहित के द्वारा नही होगी तब तक वह शिवलिंग मेरा भाग होता  है । तब राम नें उनसे पुछे की आप ही बताएं की यहां का योग्य पुरोहित कौन हो  सकता हौ तब समुद्र नें मुस्कुरा कर कहे की यहां का सर्वश्रेष्ठ पुरोहित  लंका नरेश रावण हैं ।
                                             तब राम नें अपने एक दूत को लंकेश के दरबार में नम्र निवेदन के साथ भेजे ।  जब दूत दरबार में पहुंचा तो लंकेश अपने दरबार में मंत्रीयों के साथ मंत्रणा  कर रहे थे । दूत से लंकेश नें अपना संदेश देने को कहा तो दूत नें इंकार  करते हुए कहा की ……. नही महाराज रावण वह संदेशा आपके लिये नही है । यह  संदेश जो मैं लेकर आया हूँ वह पुरोहित रावण के लिये है । … दूत के ऐसा कहने  पर लंकेश कुछ नही बोले और उठ कर दरबार से बाहर चले गये । कुछ देर बाद दूत  को संदेश मिला की भीतर पधारिये । जब दूत अंदर गया तो उसने देखा की एक दिव्य  पुरूष सफेद वस्त्र पहने हुए खडा है । दूत नें उस दिव्य पुरूष को प्रणाम  किया तो उस दिव्य पुरूष नें मधुर वाणी में पुछा की कहो महाराजा राम के  संदेश वाहक … क्या संदेश लाए हो  —
 दूत — हे आर्य मैं महाराज राम का संदेश पुरोहित रावण के लिये लाया हूँ ।
 दिव्य पुरूष – तुम अपना संदेशा मुझे दे सकते हो .., मैं ही हूँ पुरोहित रावण ।
 दूत –  महाराजा रावण आप …
 रावण –  नही… महाराजा रावण अपने महल में  हुआ करता है मैं यहां पुरोहित रावण हूँ और तुम इस समय मेरे साधना कक्ष के  अतिथि गृह में हो .. कहो क्या संदेसा है महाराज राम का ।
 दूत – पुरोहित जी अयोध्यानगरी के राजा  रामचंद्रजी को महापराक्रमी महाराजा रावण से युद्ध करने जाना है और युद्ध का  समय नजदीक है किंतु हमारे महाराज को भगवान शिव का आशिर्वाद लेने के लिये  यज्ञ करवाना है जिसके पुरोहित की आवश्यकता है । हो पुरोहित जी क्या आप  महाराज राम के यज्ञ में यजमानी करनें की कृपा करेंगे ।
 रावण – यदि किसी और के पूजन की बात होती  तो मैं नही जाता लेकिन यहां मेरे अराध्य शिव के पूजन की बात है और यह मेरा  सौभाग्य होगा की मैं महाराज राम के यज्ञ की यजमानी कर सकूं । मैं कल पातः 4  बजे पहुंच जाऊंगा । और हां … अपने महाराज से कहना की मैं अपने अराध्य की  पूजन सामग्री लेता आऊंगा ।
                                               इस तरह से पुरोहित रावण नें दूत को विदा कर दिये । अगले दिन प्रातः जब राम  लक्ष्मण समुद्र तट पर बैठे पुरोहितच का इंतजार कर रहे थे । लक्ष्मण रावण  से किसी तरह का धोखा होने पर अपने धनुष की प्रत्यंचा चढाए थे । कुछ समय बाद  लंका से दिव्य तीव्र प्रकाश अपनी ओर आता देख दोनो अपने स्थान पर खडे हो  गये । जब पुरोहित रावण वहां पहुंचे तो सबसे पहले राम नें उन्हे प्रणाम करके  बैठने को आसन दिये । यज्ञ प्ररंभ हुआ । पुरोहित नें संकल्प छुडवाये की यह  यज्ञ राजा रामचंद्र  की विजय के लिये आयोजित है । हे भगवान शिव आफ अफनी  कृपा बनाए रखें और यह आशीष दें की राम की जय हो और रावण मृत्यु को प्राप्त  हो ।
                                                        जब रावण यह संकल्प करवा रहे थे तो लक्ष्मण पूरे ध्यान से सुन रहे थे की  कहीं राम की जगह रावण का संल्प ना छुट जाए । जब यज्ञ सम्पन्न हो गया तो  रावण नें लक्ष्मण को बलाकर कहे की लक्ष्मण यहां पर मैं पुरोहित रावण हूँ  माहारजा रावण नही इसलिये अपनी शंका कुशंका को परे रखो ।
                                                     औऱ अंत में —– राम नें रावण को ब्रम्हास्त्र से इसलिये मारे क्योंकि रावण  को ब्रम्हा से अमरत्व प्राप्त हुआ था और राम नही चाहते थे की ब्रम्हा का  अपमान हो इसलिये जब ब्रम्हा को अपने तीर पर बैठाकर राम नें रावण के पास  भेजे तो ब्रम्हा नें रावण को जाकर कहे की हे महान तपस्वी रावण मैने आपको जो  अमरता प्रदान किया था भगवान शिव व विष्णु के निवेदन पर वह अमरता वापस लेता  हूँ । कृपया आप अपनी नश्वर देह का त्याग करने की कृपा करें ।
 …….. …..और रावण नें ब्रम्हा को उनका अमृत कुंड वापस कर दिये …

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