बुधवार, 22 फ़रवरी 2012

क्यों होती है जन्म पत्रिका बनवाने की आवश्यकता


ग्रहों के चक्कर से कोई नहीं बच सकता। रावण जैसा राजा नीति कुशल, विद्वान, बलशाली सभी ग्रहों को वशीभूत करने वाला भी शनि की कुदृष्टि से नहीं बच पाया। राजा हरिशचंद्र को भी ग्रहों ने श्मशान में चौकीदारी करवा दी। राजा नल व दमयंती को भी ग्रहों ने नहीं छोड़ा और चोरी का इल्जाम लगा। राजा रामचंद्र को वन-वन भटकना पड़ा। गांडीवधारी अर्जुन को लूट लिया गया। ग्रह किसी को भी नहीं बख्शते। एक ग्वाले को प्रसिद्ध राजा नेपोलियन बोनापार्ट बना दिया। चाहे कोई भी समाज हो, कोई भी धर्म हो ग्रहों की प्रतिकूल स्थिति से कोई नहीं बच सकता।
जन्म कुंडली जातक का शरीर है। जिस प्रकार डॉक्टर रोग पहचानकर इलाज करता है, ठीक उसी प्रकार एक कुशल ज्योतिष भी निदान बताने में समर्थ होता है। पीड़ा तो होगी लेकिन उस पीड़ा का अहसास कम होगा। उदाहरणार्थ यदि किसी की जन्म पत्रिका में यह मालूम है कि इसका किसी ट्रक से एक्सीडेंट होगा, उसे उस ग्रहों को अनुकूल बनाने वाले उपाय करने से टक्कर तो होगी, लेकिन सायकल से होगी। यदि पहले से जाना जाए कि इसका तलाक हो सकता है तो उस तलाक करवाने वाले ग्रहों को अनुकूल बनाकर उसे टाला जा सकता है।
ग्रह कोई भगवान नहीं होता, बल्कि आकाशीय मंडल में पृथ्वी के समान ही है। हमारे जन्म के समय उस ग्रहों की रश्मि किस प्रकार पड़ रही है, बस इसी का ज्ञान जन्म पत्रिका से जाना जा सकता है। दशा-अंतरदशा व गोचर स्थिति को जानकर सही-सही भविष्यवाणी की जा सकती है। इस कारण ही जन्म पत्रिका बनवाना चाहिए।

जन्म पत्रिका से क्या-क्या जाना जा सकता है?



जन्म पत्रिका बनना सीखने से पहले हमें जान लेना होगा कि जन्म पत्रिका से क्या-क्या जाना जा सकता है?
जन्म पत्रिका वह है, जिसमे जन्म के समय किन ग्रहों की स्थिति किस प्रकार थी व कौनसी जन्म लग्न जन्म के समय थी। जन्म पत्रिका में बारह खाने होते हैं जो इस प्रकार हैं-

यदि प्रथम भाव में 1 नंबर है तो मेष लग्न होगा, उसी प्रकार 2 नंबर को वृषभ, 3 नंबर को मिथुन, 4 को कर्क, 5 को सिंह, 6 को कन्या, 7 को तुला, 8 को वृश्चिक, 9 को धनु, 10 को मकर, 11 को कुंभ व 12 नंबर को मीन लग्न कहेंगे। इसी प्रकार पहले घर को प्रथम भाव कहा जाएगा, इसे लग्न भी कहते हैं।

जन्म पत्रिका के अलग-अलग भावों से हमें अलग-अलग जानकारी मिलती है, इसे हम निम्न प्रकार जानेंगे-

प्रथम भाव से हमें शारीरिक आकृति, स्वभाव, वर्ण चिन्ह, व्यक्तित्व, चरित्र, मुख, गुण व अवगुण, प्रारंभिक जीवन विचार, यश, सुख-दुख, नेतृत्व शक्ति, व्यक्तित्व, मुख का ऊपरी भाग, जीवन के संबंध में जानकारी मिलती है। इस भाव से जनस्वास्थ्य, मंत्रिमंडल की परिस्थितियों पर भी विचार जाना जा सकता है।

द्वितीय भाव से हमें कुटुंब के लोगों के बारे में, वाणी विचार, धन की बचत, सौभाग्य, लाभ-हानि, आभूषण, दृष्टि, दाहिनी आंख, स्मरण शक्ति, नाक, ठुड्डी, दांत, स्त्री की मृत्यु, कला, सुख, गला, कान, मृत्यु का कारण एवं राष्ट्रीय विचार में राजस्व, जनसाधारण की आर्थिक दशा आयात एवं वाणिज्य व्यवसाय आदि के बारे में जाना जा सकता है। इस भाव से कैद यानी राजदंड भी देखा जाता है।

तृतीय भाव से भाई, पराक्रम, साहस, मित्रों से संबंध, साझेदारी, संचार-माध्यम, स्वर, संगीत, लेखन कार्य, वक्ष स्थल, फेफड़े, भुजाएं, बंधु-बान्धव। राष्ट्रीय ज्योतिष के लिए रेल, वायुयान, पत्र-पत्रिकाएं, पत्र व्यवहार निकटतम देशों की हलचल आदि जाना जाता है।

चतुर्थ भाव में माता, स्वयं का मकान, पारिवारिक स्थिति, भूमि, वाहन सुख, पैतृक संपत्ति, मातृभूमि, जनता से संबंधित कार्य, कुर्सी, कुआं, दूध, तालाब, गुप्त कोष, उदर, छाती, राष्ट्रीय ज्योतिष हेतु शिक्षण संस्थाएं, कॉलेज, स्कूल, कृषि, जमीन, सर्वसाधारण की प्रसन्नता एवं जनता से संबंधित कार्य एवं स्थानीय राजनीति, जनता के बीच पहचान देखा जाता है।

पंचम भाव में विद्या, विवेक, लेखन, मनोरंजन, संतान, मंत्र-तंत्र, प्रेम, सट्टा, लॉटरी, अकस्मात धन लाभ, पूर्वजन्म, गर्भाशय, मूत्राशय, पीठ, प्रशासकीय क्षमता, आय भी जानी जाती है क्योंकि यहां से कोई भी ग्रह सप्तम दृष्टि से आय भाव को देखता है।

षष्ठ भाव इस भाव से शत्रु, रोग, ऋण, विघ्न-बाधा, भोजन, चाचा-चाची, अपयश, चोट, घाव, विश्वासघात, असफलता, पालतू जानवर, नौकर, वाद-विवाद, कोर्ट से संबंधित कार्य, आंत, पेट, सीमा विवाद, आक्रमण, जल-थल सैन्य के बारे में जाना जा सकता है।

सप्तम भाव स्त्री से संबंधित, विवाह, सेक्स, पति-पत्नी, वाणिज्य, क्रय-विक्रय, व्यवहार, साझेदारी, मूत्राशय, सार्वजनिक, गुप्त रोग, राष्ट्रीय नैतिकता, वैदेशिक संबंध, युद्ध का विचार भी किया जाता है। इसे मारक भाव भी कहते हैं।

अष्टम भाव से मृत्यु, आयु, मृत्यु का कारण, स्त्री धन, गुप्त धन, उत्तराधिकारी, स्वयं द्वारा अर्जित मकान, जातक की स्थिति, वियोग, दुर्घटना, सजा, लांछन आदि इस भाव से विचार किया जाता है।

नवम भाव से धर्म, भाग्य, तीर्थयात्रा, संतान का भाग्य, साला-साली, आध्यात्मिक स्थिति, वैराग्य, आयात-निर्यात, यश, ख्याति, सार्वजनिक जीवन, भाग्योदय, पुनर्जन्म, मंदिर-धर्मशाला आदि का निर्माण कराना, योजना, विकास कार्य, न्यायालय से संबंधित कार्य जाने जाते हैं।

दशम भाव से पिता, राज्य, व्यापार, नौकरी, प्रशासनिक स्तर, मान-सम्मान, सफलता, सार्वजनिक जीवन, घुटने, संसद, विदेश व्यापार, आयात-निर्यात, विद्रोह आदि के बारे में जाना जाता है। इस भाव से पदोन्नति, उत्तरदायित्व, स्थायित्व, उच्च पद, राजनीतिक संबंध, जांघें एवं शासकीय सम्मान आदि के बारे में जाना जाता है।

एकादश भाव से मित्र, समाज, आकांक्षाएं, इच्छापूर्ति, आय, व्यवसाय में उन्नति, ज्येष्ठ भाई, रोग से मुक्ति, टखना, द्वितीय पत्नी, कान, वाणिज्य-व्यापार, परराष्ट्रों से लाभ, अंतरराष्ट्रीय संबंध आदि जाना जाता है।

द्वादश भाव से व्यय, हानि, दंड, गुप्त शत्रु, विदेश यात्रा, त्याग, असफलता, नेत्र पीड़ा, षड्यंत्र, कुटुंब में तनाव, दुर्भाग्य, जेल, अस्पताल में भर्ती होना, बदनामी, भोग-विलास, बायां कान, बाईं आंख, ऋण आदि के बारे में जाना जाता ह

साढ़ेसाती और कालसर्प


 कुछ लोग कालसर्प योग को नहीं मानते। देखा जाए तो शास्त्रों में कालसर्प योग नाम का कोई भी योग नहीं है। कुछ विद्धानों ने अपने अनुभव के आधार पर राहु और केतु के मध्य सारे ग्रह होने की स्थिति को कालसर्प योग की संज्ञा दी है। हमने भी यह हजारों पत्रिका को देखकर जाना कि ऐसी ग्रह स्थिति वाला व्यक्ति परेशान रहा।

राहु व केतु के मध्य सारे ग्रह आ जाने से कालसर्प योग विशेष प्रभावशाली नहीं होता जबकि केतु व राहु के मध्य ग्रहों का आना अधिक प्रभावी होता है। यहाँ धीरूभाई अम्बानी व सचिन तेंडुलकर के उदाहरण से समझा जा सकता है। दोनों की कुंडली में कालसर्प योग का असर है। दोनों ने ही संघर्ष किया। अत : केतु व राहु के बीच ग्रहों के आने का खासा प्रभाव दिखाई देता है।

इसी प्रकार शनि की साढ़ेसाती भी उसी अवस्था में परेशान करती है जब जन्म-पत्रिका में शनि की प्रतिकूल स्थिति हो। राजा नल, सत्यवादी राजा हरिशचन्द्र, महाराजा विक्रमादित्य जैसे पराक्रमी भी शनि की साढ़ेसाती के फेर से नहीं बच सके तो आम आदमी कैसे बच सकता है?

जन्म-पत्रिका में शनि की अशुभ स्थिति से साढ़ेसाती अशुभ फलदायी रहती है। यदि शनि उच्च राशि तुला में हो या मकर अथवा कुंभ में हो तो हानिप्रद नहीं होता।

शनि नीच राशि मेष में हो या सूर्य की राशि सिंह में हो व लोहे के पाद से हो तो फिर स्वयं भगवान ही क्यों न हो, फल भोगना ही पड़ता है। जब शनि अष्टम में नीच का हो या षष्ट भाव अथवा द्वादश में हो तो अशुभ फल देखने को मिलते हैं।

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दुर्भाग्य दूर करने के लिये

आटे का दिया, १ नीबू, ७ लाल मिर्च, ७ लड्डू,२ बत्ती, २ लोंग, २ बड़ी इलायची बङ या केले के पत्ते पर ये सारी चीजें रख दें |रात्रि १२ बजे सुनसान चौराहे पर जाकर पत्ते को रख दें व प्रार्थना करें,

 

अविवाहित युवती

पाँच सोमवार के व्रत करें, रोज एक रुद्राक्ष और एक बिल्बपत्र शिवलिंग पर चढायें, अगर माहवारी हो तो वह सोमवार छोड़ कर अगला वाला करें, एक समय सात्विक भोजन करें |

जब घर से निकले तब यह प्रार्थना करें = हे दुर्भाग्य, संकट, विपत्ती आप मेरे साथ चलें और पत्ते को रख दें | फिर प्रार्थना करें = मैं विदा हो रहा हूँ | आप मेरे साथ न आयें, चारों रास्ते खुले हैं आप कहीं भी जायें | एक बार करने के बाद एक दो महीने देखें, उपाय लाभकारी है| श्रद्धा से करें |

हवन और यज्ञ करने का मुहुर्त

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शास्त्रों में बताया गया है कि हम जो हवन या यज्ञ करते हैं उसमें दी गई हवि से यानी हवन सामग्री से देवताओं को बल प्राप्त होता है अर्थात वह उनका आहार है। आपने देवासुर संग्राम के विषय में काफी कुछ पढ़ा या सुना होगा जिसमें आपने देखा होगा कि असुर लोग जब देवताओं को पराजित कर देते थे तब असुर यज्ञ भाग पर अधिकार कर लेते थे ताकि देवताओं की शक्ति क्षीण हो जाए।
मान्यताओं के अनुसार हवन और यज्ञ में दी गई आहुति वास्तव में देवताओं को सम्पूर्ण रूप से प्राप्त होती है। देवता आहुतियों से प्रसन्न होते है जिससे आपका मनोरथ यानी आपकी इच्छा पूरी होती है। ज्योतिषशास्त्रियों के अनुसार जिस हवि और आहुति को यज्ञ और हवन के माध्यम से देवता स्वयं आकर ग्रहण करते हैं उसे कभी भी अशुभ मुहुर्त में नहीं करना चाहिए। हवन और यज्ञ का पूर्ण फल प्राप्त करने के लिए ध्यान रखें कि जब भी इसका संकल्प लें या इसे प्रारम्भ करें उससे पहले मुहुर्त जरूर देख लें  

हवन और यज्ञ के लिए शुभ मुहुर्त क्या होना चाहिए व मुहुर्त किस प्रकार ज्ञात करना चाहिए, आइये इसे देखें 

1.आयन विचार
यज्ञ और हवन के लिए नक्षत्र आंकलन करने से पहले अयन का विचार करलें । उत्तरायन को धर्मशास्त्र में अत्यंत शुभ माना   गया है। अयन सूर्य की गति का नाम है, सूर्य जब उत्तर दिशा में गमन करता है तो उत्तरायण होता है। उत्तरायण को देवताओं का दिन माना जाता और दक्षिणायन को रात अत: यज्ञादि कार्य उत्तरायण में करना श्रेष्ठ कहा गया है।

2.नक्षत्र विचार
उत्तरायण में जिस दिन आप यज्ञ या हवन शुरू करें उस दिन नक्षत्रों की स्थिति का आंकलन करलें। विशाखा  कृतिका उत्तराफाल्गुनी उत्तराषाढ़ा  उत्तराभाद्रपद  रोहिणी, रेवती  मृगशि  ज्येष्ठा और पुष्य नक्षत्र में से कोई नक्षत्र दिवस जिस दिन हो आप यज्ञ का श्रीगणेश कर सकते हैं अर्थात यज्ञ शुरू कर सकते हैं।

2.लग्न आंकलन
यज्ञ और हवन के लिए शुभ लग्न मुहुर्त का विचार करना चाहिए । इस सम्बन्ध में बताया जाता है कि जब लग्न अथवा नवमांश में कर्क, मकर, कुम्भ अथवा मीन राशि हो और प्रथम, तृतीय, चतुर्थ, पंचम, षष्टम, सप्तम, नवम, दशम, एकादश भावों में सूर्य, चन्द्र, मंगल, बृहस्पति हो तथा 8वां भाव खाली हो तो उत्तम होता है।

3.तिथि आंकलन
तिथि के विषय में ज्योतिषशास्त्र कहता है कि चतुर्थ, नवम, चतुर्दशी तिथियां रिक्ता तिथि होती है. अत: इन तिथियों में हवन और यज्ञ नहीं करना चाहिए। इन तिथियों के अलावा किसी भी तिथि में यज्ञ किया जा सकता है।

4.ग्रह आंकलन
ज्योतिष सिद्धान्त के अनुसार जिस दिन चन्द्र, मंगल, बृहस्पति और शुक्र नीचस्थ हों या अस्त हों उस दिन यज्ञ और हवन नहीं करना चाहिए।

गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

सर्व-संकट-निवारण ‘रुद्राष्टक’ का नित्य पाठ करें।


  Rudrastak Path

॥ श्रीरुद्राष्टकम् ॥
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् ।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ॥ १॥
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम् ।
करालं महाकाल कालं कृपालं गुणागार संसारपारं नतोऽहम् ॥ २॥
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं मनोभूत कोटिप्रभा श्री शरीरम् ।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गङ्गा लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा ॥ ३॥
चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥ ४॥
प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम् ।
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम् ॥ ५॥
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी ।
चिदानन्द संदोह मोहापहारी प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥ ६॥
न यावत् उमानाथ पादारविन्दं भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ।
न तावत् सुखं शान्ति सन्तापनाशं प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम् ॥ ७॥
न जानामि योगं जपं नैव पूजां नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम् ।
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो ॥ ८॥
रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये ।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥
॥ इति श्रीगोस्वामितुलसीदासकृतं श्रीरुद्राष्टकं संपूर्णम् ॥
विशेषः- उक्त ‘रुद्राष्टक’ को स्नानोपरान्त भीगे कपड़े सहित शिवजी के सामने सस्वर पाठ करने से किसी भी प्रकार का शाप या संकट कट जाता है। यदि भीगे कपड़े सहित पाठ की सुविधा न हो, तो घर पर या शिव-मन्दिर में भी तीन बार, पाचँ बार, आठ बार पाठ करके मनोवाञ्छित फल पाया जा सकता है। यह सिद्ध प्रयोग है। विशेषकर ‘नाग-पञ्चमी’ पर रुद्राष्टक का पाठ विशेष फलदायी है।

हठयोग के आचार्य गुरु गोरखनाथ जी महाराज







गोरखनाथश् या गोरक्षनाथ जी महाराज ११वी से १२वी शताब्दी के नाथ योगी थे। गुरु गोरखनाथ जी ने पूरे भारत का भ्रमण किया और अनेकों ग्रन्थों की रचना की। गोरखनाथ जी का मन्दिर उत्तर प्रदेश के गोरखपुर नगर मे स्थित है। गोरखनाथ के नाम पर इस जिले का नाम गोरखपुर पडा है। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) थे। इन दोनों ने नाथ सम्प्रदाय को सुव्यवस्थित कर इसका विस्तार किया। इस सम्प्रदाय के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है। गुरु गोरखनाथ हठयोग के आचार्य थे। कहा जाता है कि एक बार गोरखनाथ समाधि में लीन थे। इन्हें गहन समाधि में देखकर माँ पार्वती ने भगवान शिव से उनके बारे में पूछा। शिवजी बोले, लोगों को योग शिक्षा देने के लिए ही उन्होंने गोरखनाथ के रूप में अवतार लिया है। इसलिए गोरखनाथ को शिव का अवतार भी माना जाता है।
इन्हें चैरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। इनके उपदेशों में योग और शैव तंत्रों का सामंजस्य है। ये नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखनाथ की लिखी गद्य-पद्य की चालीस रचनाओं का परिचय प्राप्त है। इनकी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात् तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान को अधिक महत्व दिया है। गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात् समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है। गोरखनाथ के जीवन से सम्बंधित एक रोचक कथा इस प्रकार है- एक राजा की प्रिय रानी का स्वर्गवास हो गया। शोक के मारे राजा का बुरा हाल था। जीने की उसकी इच्छा ही समाप्त हो गई। वह भी रानी की चिता में जलने की तैयारी करने लगा। लोग समझा-बुझाकर थक गए पर वह किसी की बात सुनने को तैयार नहीं था। इतने में वहां गुरु गोरखनाथ आए। आते ही उन्होंने अपनी हांडी नीचे पटक दी और जोर-जोर से रोने लग गए। राजा को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने सोचा कि वह तो अपनी रानी के लिए रो रहा है, पर गोरखनाथ जी क्यों रो रहे हैं। उसने गोरखनाथ के पास आकर पूछा, श्महाराज, आप क्यों रो रहे हैं?श् गोरखनाथ ने उसी तरह रोते हुए कहा, श्क्या करूं? मेरा सर्वनाश हो गया। मेरी हांडी टूट गई है। मैं इसी में भिक्षा मांगकर खाता था। हांडी रे हांडी।श् इस पर राजा ने कहा, श्हांडी टूट गई तो इसमें रोने की क्या बात है? ये तो मिट्टी के बर्तन हैं। साधु होकर आप इसकी इतनी चिंता करते हैं।श् गोरखनाथ बोले, श्तुम मुझे समझा रहे हो। मैं तो रोकर काम चला रहा हूं तुम तो मरने के लिए तैयार बैठे हो।श् गोरखनाथ की बात का आशय समझकर राजा ने जान देने का विचार त्याग दिया। कहा जाता है कि राजकुमार बप्पा रावल जब किशोर अवस्था में अपने साथियों के साथ राजस्थान के जंगलों में शिकार करने के लिए गए थे, तब उन्होंने जंगल में संत गुरू गोरखनाथ को ध्यान में बैठे हुए पाया। बप्पा रावल ने संत के नजदीक ही रहना शुरू कर दिया और उनकी सेवा करते रहे। गोरखनाथ जी जब ध्यान से जागे तो बप्पा की सेवा से खुश होकर उन्हें एक तलवार दी जिसके बल पर ही चित्तौड़ राज्य की स्थापना हुई।
गोरखनाथ जी ने नेपाल और पाकिस्तान में भी योग साधना की। पाकिस्तान के सिंध प्रान्त में स्थित गोरख पर्वत का विकास एक पर्यटन स्थल के रूप में किया जा रहा है। इसके निकट ही झेलम नदी के किनारे राँझा ने गोरखनाथ से योग दीक्षा ली थी। नेपाल में भी गोरखनाथ से सम्बंधित कई तीर्थ स्थल हैं। उत्तरप्रदेश के गोरखपुर शहर का नाम गोरखनाथ जी के नाम पर ही पड़ा है। यहाँ पर स्थित गोरखनाथ जी का मंदिर दर्शनीय है। गुरु गोरखनाथ जी के नाम से ही नेपाल के गोरखाओं ने नाम पाया। नेपाल में एक जिला है गोरखा, उस जिले का नाम गोरखा भी इन्ही के नाम से पड़ा। माना जाता है कि गुरु गोरखनाथ सबसे पहले यही दिखे थें। गोरखा जिला में एक गुफा है जहाँ गोरखनाथ का पग चिन्ह है और उनकी एक मुर्ती भी है। यहाँ हर साल वैशाख पुर्णिमा को एक उत्सव मनाया जाता है जिसे रोट महोत्सव कहते है और यहाँ मेला भी लगता है। हिन्दू धर्म, दर्शन, अध्यात्म और साधना के अन्तर्गत विभिन्न सम्प्रदायों और मत-मतान्तरों में प्रमुख स्थान रखने वाले नाथ सम्प्रदाय की उत्पत्ति आदिनाथ भगवान शिव द्वारा मानी जाती है। शिव से जो तत्वज्ञान मत्स्येन्द्र नाथ ने प्राप्त किया उसे ही शिष्य बन कर शिवावतार महायोगी गुरु गोरक्षनाथ ने ग्रहण किया
महाकालयोग शास्त्र में स्वयं शिव ने कहा है-श्अहमेवास्मि गोरक्षो मद्रूपं तन्निबोधत! योग-मार्ग प्रचाराय मयारूपमिदं धृतम्श्। भारतीय धर्म साधक-सम्प्रदायों की पतनोन्मुख और विकृत स्थिति के दौर में वामाचारी तांत्रिक साधना चरम पर थी। तब पंचमकारों का खुल कर प्रयोग होता था। भोगवाद शीर्ष पर था। ऐसे समय में महायोगी गोरक्षनाथ ने ब्रह्मचर्य प्रधान योगयुक्त ज्ञान का व्यापक प्रचार-प्रसार किया। उनका मानना था कि सिद्धियों का प्रयोग सर्वजन हिताय के लिए ही होना चाहिए। उनके आचार सम्बन्धी उपदेश योग के सैद्धान्तिक अष्टांग योग की अपेक्षा अधिक व्यावहारिक हैं। नाथ पंथी योगी महायोगी गुरु गोरक्षनाथ को चारों युगों में विद्यमान, अयोनिज, अमरकाय और सिद्ध महापुरुष मानते हैं। उन्होंने भारत के अलावा तिब्बत, मंगोलिया, कंधार, अफगानिस्तान, नेपाल, सिंघल को अपने योग महाज्ञान से आलोकित किया। नाथ सम्प्रदाय की मान्यता के अनुसार गोरक्षनाथ सतयुग में पेशावर, त्रेता में गोरखपुर, द्वापर में हरमुज (द्वारिका) और कलियुग में गोरखमढ़ी (महाराष्ट्र) में आविभरूत हुए। जोधपुर नरेश महाराजा मानसिंह द्वारा विरचित श्श्रीनाथ तीर्थावलीश् के अनुसार प्रभास क्षेत्र में श्रीकृष्ण और रुक्मिणी के विवाह में कंकण बंधन गुरु गोरक्षनाथ की कृपा से ही हुआ था। यद्यपि वैदिक साधना के साथ समानान्तर रूप से प्रवाहित तांत्रिक साधना का समान रूप से शैव, शाक्त, जैन, वैष्णव आदि पर प्रभाव पड़ा, तथापि उनसे सदाचार के नियमों का पालन यथाविधि नहीं हो सकता। चतुर्दिक फैले हुए अनाचार को देख कर गोरखनाथ ने ब्रह्मचर्य प्रधान योगयुक्त ज्ञान का व्यापक प्रचार किया। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास को लिखना पड़ा- गोरख भगायो जोगु, भगति भगायो लोगु। भक्ति को भगाने वाले संबोधन से तात्पर्य कदाचित साकारोपासना से है। गुरु गोरखनाथ की भक्ति मुख्य रूप से केवल गुरु तक सीमित है। उन्होंने भक्ति का कहीं विरोध नहीं किया। तुलसी दास के कथन से एक बात स्पष्ट है कि यदि गोरखनाथ जी न होते तो संत साहित्य न होता। गुरु गोरक्षनाथ और नाथ पंथ की योग साधना एवं क्रिया कलापों की प्रतिक्रिया ही सभी निगरुण एवं सगुणमार्गी सन्तों के साहित्य में स्पष्ट होती है। उस प्रतिक्रिया के प्रवाह में प्राचीन जातिवाद, वर्णाश्रम धर्म, अस्पृश्यता, ऊँचनीच का भेदभाव मिट गया। योग मार्ग के गुह्य सिद्धान्तों को साकार करके जन भाषा में व्यक्त एवं प्रचलित करना गोरखनाथ जी का समाज के प्रति सबसे बड़ा योगदान था। उनके विराट व्यक्तित्व के कारण ही अनेक भारतीय तथा अभारतीय सम्प्रदाय नाथ पंथ में अन्तर्मुक्त हो गए। उनके योग द्वारा सिद्धि की प्राप्ति संयमित जीवन और प्राणायाम से परिपक्व देह की प्राप्ति, अन्त में नादावस्था की स्थिति में दिव्य अनुभूति और सबसे समत्व का भाव आदि विशिष्टताओं ने तत्कालीन समाज एवं साधना पद्धतियों को अपने में लपेट लिया। यही कारण था कि जायसी ने गुरु गोरक्षनाथ की महिमा में कहा- श्जोगी सिद्ध होई तब जब गोरख सौ भेंटश्। कबीर ने भी गोरक्षनाथ जी की अमरता का वर्णन इस प्रकार किया- श्कांमणि अंग विरकत भया, रत भया हरि नाहि। साषी गोरखनाथ ज्यूं,अमर भये कलि माहिश्।। गोरखनाथ जी एवं नाथ सन्तों का ज्ञान किसी शास्त्र-पुराण नहीं अपितु सहज लोकानुभव और लोक व्यवहार का था, जिसे वह जी और भोग रहे थे क्योंकि ब्रह्मचर्य, आसन, प्राणायाम, मुद्राबन्ध, सिद्धावस्था के विविध अनुभव ऐसा कुछ भी नहीं जिसके व्यवहार को छोड़ कर शास्त्र का आधार लेना पड़े। उनका लोकानुभव यज्ञ और पण्डित, ऊंच-नीच आदि की विभाजक रेखा नहीं खींचता। वह मनुष्य मात्र के लिए है। गोरखनाथ जी द्वारा विर्निदिष्ट तत्वविचार तथा योग साधना को आज भी उसी रूप में समझा जा सकता है। नाथ सम्प्रदाय को गुरु गोरक्षनाथ ने भारतीय मनोवृत्त के अनुकूल बनाया। उसमें जहाँ एक ओर धर्म को विकृत करने वाली समस्त परम्परागत रूढि़यों का कठोरता से विरोध किया, वहीं सामान्य जन को अधिकाधिक संयम और सदाचार के अनुशासन में रख कर आध्यात्मिक अनुभूतियों के लिए योग मार्ग का प्रचार-प्रसार किया। उनकी साधना पद्धति का संयम एवं सदाचार से सम्बन्धित व्यावहारिक स्वरूप जन-जन मे ंइतना लोकप्रिय हो गया था कि विभिन्न धर्मावलम्बियों, मतावलम्बियों ने अपने धर्म एवं मत को लोकप्रिय बनाने के लिए नाथ पंथ की साधना का मनचाहा प्रयोग किया।नाथ पंथ की योग साधना आज भी प्रासंगिक है। विभिन्न प्रकार की सामाजिक-शारीरिक समस्याओं से मुक्ति दिलाने में सक्षम 
Guru Gorakhnath ji (गुरु गोरखनाथ जी) सिद्ध गोरक्षनाथ को प्रणाम सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथपंथियों की हठयोग साधना आरम्भ हुई। इस पंथ को चलाने वाले मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) तथा गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) माने जाते हैं। इस पंथ के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है। कहा यह भी जाता है कि सिद्धमत और नाथमत एक ही हैं। गोरक्षनाथ के जन्मकाल पर विद्वानों में मतभेद हैं। राहुल सांकृत्यायन इनका जन्मकाल 845 ई. की 13वीं सदी का मानते हैं। नाथ परम्परा की शुरुआत बहुत प्राचीन रही है, किंतु गोरखनाथ से इस परम्परा को सुव्यवस्थित विस्तार मिला। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ थे। दोनों को चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। गुरु गोरखनाथ को गोरक्षनाथ भी कहा जाता है। इनके नाम पर एक नगर का नाम गोरखपुर है। गोरखनाथ नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखपंथी साहित्य के अनुसार आदिनाथ स्वयं भगवान शिव को माना जाता है। शिव की परम्परा को सही रूप में आगे बढ़ाने वाले गुरु मत्स्येन्द्रनाथ हुए। ऐसा नाथ सम्प्रदाय में माना जाता है। गोरखनाथ से पहले अनेक सम्प्रदाय थे, जिनका नाथ सम्प्रदाय में विलय हो गया। शैव एवं शाक्तों के अतिरिक्त बौद्ध, जैन तथा वैष्णव योग मार्गी भी उनके सम्प्रदाय में आ मिले थे। गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणीधान को अधिक महत्व दिया है। इनके माध्‍यम से ही उन्होंने हठयोग का उपदेश दिया। गोरखनाथ शरीर और मन के साथ नए-नए प्रयोग करते थे। जनश्रुति अनुसार उन्होंने कई कठ‍िन (आड़े-त‍िरछे) आसनों का आविष्कार भी किया। उनके अजूबे आसनों को देख लोग अ‍चम्भित हो जाते थे। आगे चलकर कई कहावतें प्रचलन में आईं। जब भी कोई उल्टे-सीधे कार्य करता है तो कहा जाता है कि 'यह क्या गोरखधंधा लगा रखा है।' गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है
सिद्ध योगी : गोरखनाथ के हठयोग की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले सिद्ध योगियों में प्रमुख हैं :- चौरंगीनाथ, गोपीनाथ, चुणकरनाथ, भर्तृहरि, जालन्ध्रीपाव आदि। 13वीं सदी में इन्होंने गोरख वाणी का प्रचार-प्रसार किया था। यह एकेश्वरवाद पर बल देते थे, ब्रह्मवादी थे तथा ईश्वर के साकार रूप के सिवाय शिव के अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं मानते थे। नाथ सम्प्रदाय गुरु गोरखनाथ से भी पुराना है। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। पूर्व में इस समप्रदाय का विस्तार असम और उसके आसपास के इलाकों में ही ज्यादा रहा, बाद में समूचे प्राचीन भारत में इनके योग मठ स्थापित हुए। आगे चलकर यह सम्प्रदाय भी कई भागों में विभक्त होता चला गया।
गोरखनाथ जी की जानकारी Om Siva Goraksa Yogi गोरक्षनाथ जी नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक गोरक्षनाथ जी के बारे में लिखित उल्लेख हमारे पुराणों में भी मिलते है। विभिन्न पुराणों में इससे संबंधित कथाएँ मिलती हैं। इसके साथ ही साथ बहुत सी पारंपरिक कथाएँ और किंवदंतियाँ भी समाज में प्रसारित है। उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल, बंगाल, पश्चिमी भारत, सिंध तथा पंजाब में और भारत के बाहर नेपाल में भी ये कथाएँ प्रचलित हैं। ऐसे ही कुछ आख्यानों का वर्णन यहाँ किया जा रहा हैं। 1. गोरक्षनाथ जी के आध्यात्मिक जीवन की शुरूआत से संबंधित कथाएँ विभिन्न स्थानों में पाई जाती हैं। इनके गुरू के संबंध में विभिन्न मान्यताएँ हैं। परंतु सभी मान्यताएँ उनके दो गुरूऑ के होने के बारे में एकमत हैं। ये थे-आदिनाथ और मत्स्येंद्रनाथ। चूंकि गोरक्षनाथ जी के अनुयायी इन्हें एक दैवी पुरूष मानते थे, इसीलिये उन्होनें इनके जन्म स्थान तथा समय के बारे में जानकारी देने से हमेशा इन्कार किया। किंतु गोरक्षनाथ जी के भ्रमण से संबंधित बहुत से कथन उपलब्ध हैं। नेपालवासियों का मानना हैं कि काठमांडु में गोरक्षनाथ का आगमन पंजाब से या कम से कम नेपाल की सीमा के बाहर से ही हुआ था। ऐसी भी मान्यता है कि काठमांडु में पशुपतिनाथ के मंदिर के पास ही उनका निवास था। कहीं-कहीं इन्हें अवध का संत भी माना गया है।
4.वर्तमान मान्यता के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ को श्री गोरक्षनाथ जी का गुरू कहा जाता है। कबीर गोरक्षनाथ की 'गोरक्षनाथ जी की गोष्ठी ' में उन्होनें अपने आपको मत्स्येंद्रनाथ से पूर्ववर्ती योगी थे, किन्तु अब उन्हें और शिव को एक ही माना जाता है और इस नाम का प्रयोग भगवान शिव अर्थात् सर्वश्रेष्ठ योगी के संप्रदाय को उद्गम के संधान की कोशिश के अंतर्गत किया जाता है। 5. गोरक्षनाथ के करीबी माने जाने वाले मत्स्येंद्रनाथ में मनुष्यों की दिलचस्पी ज्यादा रही हैं। उन्हें नेपाल के शासकों का अधिष्ठाता कुल गुरू माना जाता हैं। उन्हें बौद्ध संत (भिक्षु) भी माना गया है,जिन्होनें आर्यावलिकिटेश्वर के नाम से पदमपवाणि का अवतार लिया। उनके कुछ लीला स्थल नेपाल राज्य से बाहर के भी है और कहा जाता है लि भगवान बुद्ध के निर्देश पर वो नेपाल आये थे। ऐसा माना जाता है कि आर्यावलिकिटेश्वर पद्मपाणि बोधिसत्व ने शिव को योग की शिक्षा दी थी। उनकी आज्ञानुसार घर वापस लौटते समय समुद्र के तट पर शिव पार्वती को इसका ज्ञान दिया था। शिव के कथन के बीच पार्वती को नींद आ गयी, परन्तु मछली (मत्स्य) रूप धारण किये हुये लोकेश्वर ने इसे सुना। बाद में वहीं मत्स्येंद्रनाथ के नाम से जाने गये। 6. एक अन्य मान्यता के अनुसार श्री गोरक्षनाथ के द्वारा आरोपित बारह वर्ष से चले आ रहे सूखे से नेपाल की रक्षा करने के लिये मत्स्येंद्रनाथ को असम के कपोतल पर्वत से बुलाया गया था।
7.एक मान्यता के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ को हिंदू परंपरा का अंग माना गया है। सतयुग में उधोधर नामक एक परम सात्विक राजा थे। उनकी मृत्यु के पश्चात् उनका दाह संस्कार किया गया परंतु उनकी नाभि अक्षत रही। उनके शरीर के उस अनजले अंग को नदी में प्रवाहित कर दिया गया, जिसे एक मछली ने अपना आहार बना लिया। तदोपरांत उसी मछ्ली के उदर से मत्स्येंद्रनाथ का जन्म हुआ। अपने पूर्व जन्म के पुण्य के फल के अनुसार वो इस जन्म में एक महान संत बने। 8.एक और मान्यता के अनुसार एक बार मत्स्येंद्रनाथ लंका गये और वहां की महारानी के प्रति आसक्त हो गये। जब गोरक्षनाथ जी ने अपने गुरु के इस अधोपतन के बारे में सुना तो वह उसकी तलाश मे लंका पहुँचे। उन्होंने मत्स्येंद्रनाथ को राज दरबार में पाया और उनसे जवाब मांगा । मत्स्येंद्रनाथ ने रानी को त्याग दिया,परंतु रानी से उत्पन्न अपने दोनों पुत्रों को साथ ले लिया। वही पुत्र आगे चलकर पारसनाथ और नीमनाथ के नाम से जाने गये,जिन्होंने जैन धर्म की स्थापना की। 9.एक नेपाली मान्यता के अनुसार, मत्स्येंद्रनाथ ने अपनी योग शक्ति के बल पर अपने शरीर का त्याग कर उसे अपने शिष्य गोरक्षनाथ की देखरेख में छोड़ दिया और तुरंत ही मृत्यु को प्राप्त हुए और एक राजा के शरीर में प्रवेश किया। इस अवस्था में मत्स्येंद्रनाथ को लोभ हो आया। भाग्यवश अपने गुरु के शरीर को देखरेख कर रहे गोरक्षनाथ जी उन्हें चेतन अवस्था में वापस लाये और उनके गुरु अपने शरीर में वापस लौट आयें।

क्या है गायत्री मंत्र का अर्थ ?




गायत्री गीता (गायत्री महाविज्ञान भाग-२) के अनुसार गायत्री मन्त्र के नौ शब्दों में सन्निहित सूत्र इस प्रकार है-

१. तत्- यह परमात्मा के उस जीवन्त अनुशासन का प्रतीक है, जन्म और मृत्यु जिसके ताने-बाने हैं । इसे आस्तिकता-ईश्वर निष्ठा के सहारे जाना जाता है । उपासना इसका आधार है ।

२. सविर्तु- सविता, शक्ति उत्पादक केन्द्र है । साधक में शक्ति विकास का क्रम चलना चाहिए । यह जीवन साधना से साध्य है ।

३. वरेण्यं- श्रेष्ठता का वरण, आदशर्-निष्ठा, सत्य, न्याय, ईमानदारी के रूप में यह भाव फलित होता है ।

४. भर्गो- विकारनाशक तेज है, जो मन्यु साहस के रूप में उभरता और निर्मलता, निर्भयता के रूप में फलित होता है ।

५. देवस्य- दिव्यतावर्द्धक है । सन्तोष, शान्ति, निस्पृहता, संवेदना, करुणा आदि के रूप में प्रकट होता है ।

६. धीमहि- सद्गुण धारण का गुण, जो पात्रता विकास और समृद्धिरूप में फलित होता है ।

७. धियो- दिव्य मेधा, विवेक का प्रतीक शब्द है, समझदारी, विचारशीलता, निर्णायक क्षमता आदि का संवर्द्धक है ।

८. यो नः- दिव्य अनुदानों के सुनियोजन, संयम का प्रतीक है । धैर्य, ब्रह्मचर्यादि का उन्नायक है ।

९. प्रचोदयात्- दिव्य प्रेरणा, आत्मीयताजन्य सेवा साधना, सत्कर्त्तव्य निष्ठा का विकासक है ।

रावण- एक अनछुआ परिचय



हे महावीर , पराक्रमी, महाज्ञानी, महाभक्त, न्यायप्रिय, अपनों से प्रेमभाव रखने वाले , अपनी प्रजा को पुत्र से ज्यादा प्रेम करने वाले, धर्म आचरण रखने वाले,
अपने शत्रुओं को भयभीत रखने वाले, वेदांत प्रिय त्रिलोकस्वामी रावण आपकी सदा जय हो !

                         हे महावीर आपके समक्ष मैं नासमझ अनजाना बालक आपसे सहायता मांग रहा हूँ । हे रावण मेरे देश को बचा लो उन दुष्ट देवता रूपी नेताओं से जो हर साल आपके पुतले को जलाकर आपको मार रहे हैं और आपको मरा समझ अपने को अजेय मान रहे हैं । हे पराक्रमी दसशीशधारी आज मेरे देश को आपकी सख्त जरूरत आन पडी है । जनता त्राही त्राही कर रही है ओर राजशासन इत्मीनान से भ्रष्टाचार, व्याभिचार और धर्मविरोधी कार्यों में लगा हुआ ।
हे रावण मुझे आपकी सहायता चाहिये इस देश में धर्म को बचाने के लिये , उस धर्म को जिसे निभाने के लिये जिसमें आप स्वयं पुरोहित बनकर राम के समक्ष बैठकर अपनी मृत्यु का संकल्प करवाए थे । आज हमारे राजमंत्री अपने को बचाने के लिये प्रजा की आहूति दे रहे हैं । हे रावण आप जिस राम के हाथों मुक्ति पाने के लिये अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिये वही राम आज अपने ही देश में, अपनी ही जन्मस्थली को वापस पाने के लिये इस देश के न्यायालय में खडे हैं । हे रावण अब राम में इतना सामर्थ्य नही है कि वह इस देश को बचा सके इसलिये आज हमें आपकी आवश्यकता है ।
                     हे दशग्रीव हम बालक नादान है जो आपकी महिमा और ज्ञान को परे रखकर अब तक अहंकार को ना जला कर मिटाकर आपको ही जलाते आ रहे हैं । हे परम ज्ञान के सागर, संहिताओं के रचनाकर अब हमें समझ आ रहा है कि जो दक्षिणवासी आप पर श्रद्धा रखते आ रहे हैं वो हम लोगों से बेहतर क्यों हैं । हे त्रिलोकी सम्राट हमें अपनी शरण में ले लो और केवल दक्षिण को छोड समस्त भारत भूमि की रक्षा करने आ जाओ । हे वीर संयमी आपने जिस सीता को अपने अंतःपुर मे ना रख कर अशोक वाटिका जैसी सार्वजनिक जगह पर रखे ताकि कोई आप पर कटाक्ष ना कर सके वही सीता आज सार्वजनिक बाग बगीचों में भी लज्जाहिन होने में गर्व महसूस कर रही है ।
        हे शिवभक्त मेरे देश में यथा राजा तथा प्रजा का वेदकथन अभी चरितार्थ नही हो पाया है अभी प्रजा में आपका अंश बाकि है लेकिन हे प्रभो ये रामरूपी राजनेता , प्रजा के भीतर बसे रावण को पूरी तरह से समाप्त करने पर तुले हुए हैं ।
       त्राहीमाम् त्राहीमाम् ……. हे राक्षसराज रावण हमारी इन कपटी, ढोंगी रामरूपी नेताओं से रक्षा करो ।
                                                              ।। रावण ।।
                                ठीक है की मैं जो कह रहा हूँ वह गलत हो सकता है लेकिन क्या कोई इस बात को सोचनें की जहमत उठाने को तैय्यार है की रावण का पुतला हम क्यों जलाते हैं या जलते रावण का पुतला जला कर खुशीयां क्यों मनाते हैं ?  हम रावण का पुतला केवल इसलिये जलाते हैं क्योंकि हमें केवल त्यौहार मनानें का शौक रहा है । हर परंपरा को निभाने की आदत में शुमार होकर हम लोग कई रस्मों को बिना जाने पहचानें , सोचे समझे उसमें सम्मिलित हो जाते हैं । रावण को दशानन क्यों कहा जाता है इसके बारे में बडे ही हास्पद तरीके से रावण के दस सिरों को बनाकर काम क्रोध लोभ वगैरह वगैरह का नाम दे दिया जाता है , जबकि हकीकत ये हैं की रावण को दशानन कहने वाले राम थे और उन्होने उसे दशानन इसलिये कहे थे क्योंकि रावण का दसों दिशाओं पर अधिकार था । (पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, वायव्य, नैऋत्य, आग्नेय, आकाश और पाताल) आकाश (स्वर्ग) पर इंद्रजीत, पाताल में अहिरावण औऱ बाकी आठ दिशाओं का नियंत्रण स्वयं रावण के पास था । ये बातें आजकल कोई नही समझाता क्योंकि इससे लोगों का त्यौहार फीका पड जाएगा ।
                                           क्या किसी नें यह सोचने की जहमत उठाई की रावण नें सीता को अपने अंतःपुर में ना रख कर अशोक वाटिका जैसी सार्वजनिक जगह पर क्यों रखा ?
                           दरअसल सीता रावण की पुत्री  थी । जब रावण नें मंदोदरी की कोख में कन्या को देखा तो उसनें अपने ज्योतिष से यह जान लिया था की वह कन्या और कोई नही स्वयं माता भगवती का अवतार हैं । चूंकि रावण किसी भी स्त्री का वध नही कर सकता था (कन्या ही क्या रावण के द्वारा किसी की हत्या की गई हो इसका भी प्रमाण नही है, उसनें लंका पर कब्जा केवल इसलिये किया था क्योंकि वह नगरी उसके अऱाध्य शिव नें अपने लिये बनवाए थे ) इसलिये उसनें उस कन्या भ्रूण को राजा जनक ( राजा जनक नें महर्षि गौतम की पत्नि अहिल्या के बलात्कार का दोषी इंद्र को ठहराते हुए हवन में उसकी आहूति बंद करवा दिये थे इसलिये आज भी यज्ञ में इंद्र को आहूति नही दी जाती है ) के राज्य में उस खेत में रख दिया जहां से वह राजा जनक को आसानी से प्राप्त हो जाए ।     रावण नें माँ भगवती को इसलिये अपने राज्य से हटा दिया था क्योंकि वह जानता था की उसके राज्य में जिस तरह की रक्ष तंत्र व्यवस्था है उसमें देवी को वह सम्मानीय स्थान नही मिल पाएगा जिसकी वह हकदार हो सकती थी ।
                                                हनुमान नें पूरे लंका को तहस नहस कर दिये लेकिन रावण और हनुमान के युद्ध का कहीं भी वर्णन नही है और यदि है तो उसका कोई ठोस प्रमाण नही है । दरअसल रावण- हनुमान का युद्ध हो ही नही सकता था क्योंकि हनुमान भगवान शिव के रूद्रावतार थे औऱ रावण को यह ज्ञात था की स्वयं शिव राम की सहायता कर रहे हैं फिर भला यह कैसे संभव हो सकता था की रावण हनुमान को किसी भी तरह की क्षति पहुंचाता । दरअसल लंकादहन इसलिये करवाई गई क्योंकि उसका निर्माण भी भगवान शंकर नें किये थे और उसका दहन भी उन्होने ही किये अर्थात अपनी ही वस्तु को समाप्त कर दिये ।
                                           सब कहते हैं की राम नें रावण को मार दिये लेकिन किसी नें यह सोचा की जब रावण नें हजार साल ब्रम्हा की तपस्या करके अमरत्व लिया था तो  उसकी स्वयं की आयु क्या रही होगी  । फिर   इतने शक्तिशाली और प्रतापी सम्राट को 24 वर्ष का युवक राम कैसे मार सकता था ।
                                              दरअसल राम को भी रावण को मारने के लिये 24 बार जन्म लेना पडा था । हर युग में जब जब त्रेता युग आता था तब तब राम जन्म लेते थे लेकिन23 युग तक राम की मृत्यु होती रही । तब 24वें युग में राम का पुनः जन्म हुआ तो भगवान शिव नें विष्णु को रावण की मृत्यु के लिये हर संभव सहायता दिये और हनुमान को प्रकट किये । जब राम बडे हुए तो उन्हे ब्रम्हर्षि  विश्वामित्र नें अपने संरक्षण में लेकर युवा राम को सबल राम बना दिये । उन्हे हर तरह के दिव्यात्र और देवास्त्र देने वाले महर्षि विश्वामित्र ही थे ।  बाकि की कहानी तो हर किसी को मालूम है लेकिन एक बात ऐसी भी है जो बहुत ही कम लोगों को ज्ञात है । जब राम लंका के पास रामेश्वरम में धनुषकोटी के पास पहुंचे तो क्रोध में उन्होने समुद्र को जलाने के लिये धनुष उठाए तो समुद्र नें उन्हे पुल बनाने का फार्मुला देने के साथ साथ शिवलिंग की स्थापना करने को भी कहा पुल बनने के बाद राम नें वहीं समुद्र तट पर रेती से शिवलिंग बनाने का प्रयास किये । लेकिन जितनी बार वह शिवलिंग बनाते उतनी बार समुद्र उस शिवलिंग को अपने साथ बहा कर ले जाता तब उन्होने पुनः समुद्र से उपाय पुछे तो समुद्र नें उनसे कहे की हे राम तुम क्षत्रिय हो और जब तक शिवलिंग की स्थापना योग्य पुरोहित के द्वारा नही होगी तब तक वह शिवलिंग मेरा भाग होता है । तब राम नें उनसे पुछे की आप ही बताएं की यहां का योग्य पुरोहित कौन हो सकता हौ तब समुद्र नें मुस्कुरा कर कहे की यहां का सर्वश्रेष्ठ पुरोहित लंका नरेश रावण हैं ।
                                           तब राम नें अपने एक दूत को लंकेश के दरबार में नम्र निवेदन के साथ भेजे । जब दूत दरबार में पहुंचा तो लंकेश अपने दरबार में मंत्रीयों के साथ मंत्रणा कर रहे थे । दूत से लंकेश नें अपना संदेश देने को कहा तो दूत नें इंकार करते हुए कहा की ……. नही महाराज रावण वह संदेशा आपके लिये नही है । यह संदेश जो मैं लेकर आया हूँ वह पुरोहित रावण के लिये है । … दूत के ऐसा कहने पर लंकेश कुछ नही बोले और उठ कर दरबार से बाहर चले गये । कुछ देर बाद दूत को संदेश मिला की भीतर पधारिये । जब दूत अंदर गया तो उसने देखा की एक दिव्य पुरूष सफेद वस्त्र पहने हुए खडा है । दूत नें उस दिव्य पुरूष को प्रणाम किया तो उस दिव्य पुरूष नें मधुर वाणी में पुछा की कहो महाराजा राम के संदेश वाहक … क्या संदेश लाए हो  —
दूत — हे आर्य मैं महाराज राम का संदेश पुरोहित रावण के लिये लाया हूँ ।
दिव्य पुरूष – तुम अपना संदेशा मुझे दे सकते हो .., मैं ही हूँ पुरोहित रावण ।
दूत –  महाराजा रावण आप …
रावण –  नही… महाराजा रावण अपने महल में हुआ करता है मैं यहां पुरोहित रावण हूँ और तुम इस समय मेरे साधना कक्ष के अतिथि गृह में हो .. कहो क्या संदेसा है महाराज राम का ।
दूत – पुरोहित जी अयोध्यानगरी के राजा रामचंद्रजी को महापराक्रमी महाराजा रावण से युद्ध करने जाना है और युद्ध का समय नजदीक है किंतु हमारे महाराज को भगवान शिव का आशिर्वाद लेने के लिये यज्ञ करवाना है जिसके पुरोहित की आवश्यकता है । हो पुरोहित जी क्या आप महाराज राम के यज्ञ में यजमानी करनें की कृपा करेंगे ।
रावण – यदि किसी और के पूजन की बात होती तो मैं नही जाता लेकिन यहां मेरे अराध्य शिव के पूजन की बात है और यह मेरा सौभाग्य होगा की मैं महाराज राम के यज्ञ की यजमानी कर सकूं । मैं कल पातः 4 बजे पहुंच जाऊंगा । और हां … अपने महाराज से कहना की मैं अपने अराध्य की पूजन सामग्री लेता आऊंगा ।
                                             इस तरह से पुरोहित रावण नें दूत को विदा कर दिये । अगले दिन प्रातः जब राम लक्ष्मण समुद्र तट पर बैठे पुरोहितच का इंतजार कर रहे थे । लक्ष्मण रावण से किसी तरह का धोखा होने पर अपने धनुष की प्रत्यंचा चढाए थे । कुछ समय बाद लंका से दिव्य तीव्र प्रकाश अपनी ओर आता देख दोनो अपने स्थान पर खडे हो गये । जब पुरोहित रावण वहां पहुंचे तो सबसे पहले राम नें उन्हे प्रणाम करके बैठने को आसन दिये । यज्ञ प्ररंभ हुआ । पुरोहित नें संकल्प छुडवाये की यह यज्ञ राजा रामचंद्र  की विजय के लिये आयोजित है । हे भगवान शिव आफ अफनी कृपा बनाए रखें और यह आशीष दें की राम की जय हो और रावण मृत्यु को प्राप्त हो ।
                                                      जब रावण यह संकल्प करवा रहे थे तो लक्ष्मण पूरे ध्यान से सुन रहे थे की कहीं राम की जगह रावण का संल्प ना छुट जाए । जब यज्ञ सम्पन्न हो गया तो रावण नें लक्ष्मण को बलाकर कहे की लक्ष्मण यहां पर मैं पुरोहित रावण हूँ माहारजा रावण नही इसलिये अपनी शंका कुशंका को परे रखो ।
                                                   औऱ अंत में —– राम नें रावण को ब्रम्हास्त्र से इसलिये मारे क्योंकि रावण को ब्रम्हा से अमरत्व प्राप्त हुआ था और राम नही चाहते थे की ब्रम्हा का अपमान हो इसलिये जब ब्रम्हा को अपने तीर पर बैठाकर राम नें रावण के पास भेजे तो ब्रम्हा नें रावण को जाकर कहे की हे महान तपस्वी रावण मैने आपको जो अमरता प्रदान किया था भगवान शिव व विष्णु के निवेदन पर वह अमरता वापस लेता हूँ । कृपया आप अपनी नश्वर देह का त्याग करने की कृपा करें ।
 …….. …..और रावण नें ब्रम्हा को उनका अमृत कुंड वापस कर दिये …

[ विनायकस्तोत्र ]

॥ विनायकस्तोत्र ॥


मूषिकवाहन मोदकहस्त चामरकर्ण विलम्बितसूत्र ।
वामनरूप महेश्वरपुत्र विघ्नविनायक पाद नमस्ते ॥

देवदेवसुतं देवं जगद्विघ्नविनायकम् ।
हस्तिरूपं महाकायं सूर्यकोटिसमप्रभम् ॥ १॥

वामनं जटिलं कान्तं ह्रस्वग्रीवं महोदरम् ।
धूम्रसिन्दूरयुद्गण्डं विकटं प्रकटोत्कटम् ॥ २॥

एकदन्तं प्रलम्बोष्ठं नागयज्ञोपवीतिनम् ।
त्र्यक्षं गजमुखं कृष्णं सुकृतं रक्तवाससम् ॥ ३॥

दन्तपाणिं च वरदं ब्रह्मण्यं ब्रह्मचारिणम् ।
पुण्यं गणपतिं दिव्यं विघ्नराजं नमाम्यहम् ॥ ४॥

देवं गणपतिं नाथं विश्वस्याग्रे तु गामिनम् ।
देवानामधिकं श्रेष्ठं नायकं सुविनायकम् ॥ ५॥

नमामि भगवं देवं अद्भुतं गणनायकम् ।
वक्रतुण्ड प्रचण्डाय उग्रतुण्डाय ते नमः ॥ ६॥

चण्डाय गुरुचण्डाय चण्डचण्डाय ते नमः ।
मत्तोन्मत्तप्रमत्ताय नित्यमत्ताय ते नमः ॥ ७॥

उमासुतं नमस्यामि गङ्गापुत्राय ते नमः ।
ओङ्काराय वषट्कार स्वाहाकाराय ते नमः ॥ ८॥

मन्त्रमूर्ते महायोगिन् जातवेदे नमो नमः ।
परशुपाशकहस्ताय गजहस्ताय ते नमः ॥ ९॥

मेघाय मेघवर्णाय मेघेश्वर नमो नमः ।
घोराय घोररूपाय घोरघोराय ते नमः ॥ १०॥

पुराणपूर्वपूज्याय पुरुषाय नमो नमः ।
मदोत्कट नमस्तेऽस्तु नमस्ते चण्डविक्रम ॥ ११॥

विनायक नमस्तेऽस्तु नमस्ते भक्तवत्सल ।
भक्तप्रियाय शान्ताय महातेजस्विने नमः ॥ १२॥

यज्ञाय यज्ञहोत्रे च यज्ञेशाय नमो नमः ।
नमस्ते शुक्लभस्माङ्ग शुक्लमालाधराय च ॥ १३॥

मदक्लिन्नकपोलाय गणाधिपतये नमः ।
रक्तपुष्प प्रियाय च रक्तचन्दन भूषित ॥ १४॥

अग्निहोत्राय शान्ताय अपराजय्य ते नमः ।
आखुवाहन देवेश एकदन्ताय ते नमः ॥ १५॥

शूर्पकर्णाय शूराय दीर्घदन्ताय ते नमः ।
विघ्नं हरतु देवेश शिवपुत्रो विनायकः ॥ १६

पितृस्तोत्र



Picture
  पितृस्तोत्र
।।रूचिरूवाच।।
अर्चितानाममूर्तानां पितृणां दीप्ततेजसाम्। नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम्।।
इन्द्रादीनां च नेतारो दक्षमारीचयोस्तथा। तान् नमस्याम्यहं सर्वान् पितृनप्सूदधावपि।।
नक्षत्राणां ग्रहाणां च वाय्वग्न्योर्नभसस्तथा। द्यावापृथिव्योश्च तथा नमस्यामि कृतांजलिः।।
देवर्षीणां जनितृंश्च सर्वलोकनमस्कृतान्। अक्षय्यस्य सदा दातृन् नमस्येऽहं कृतांजलिः।।
प्रजापतं कश्यपाय सोमाय वरूणाय च। योगेश्वरेभ्यश्च सदा नमस्यामि कृतांजलिः।।
नमो गणेभ्यः सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु। स्वयम्भुवे नमस्यामि ब्रह्मणे योगचक्षुषे।।
सोमाधारान् पितृगणान् योगमूर्तिधरांस्तथा। नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम्।।
अग्निरूपांस्तथैवान्यान् नमस्यामि पितृनहम्। अग्निषोममयं विश्वं यत एतदशेषतः।।
ये तु तेजसि ये चैते सोमसूर्याग्निमूर्तयः। जगत्स्वरूपिणश्चैव तथा ब्रह्मस्वरूपिणः।।
तेभ्योऽखिलेभ्यो योगिभ्यः पितृभ्यो यतमानसः। नमो नमो नमस्ते मे प्रसीदन्तु स्वधाभुजः।।

रूचि बोले - जो सबके द्वारा पूजित, अमूर्त, अत्यन्त तेजस्वी, ध्यानी तथा दिव्यदृष्टि सम्पन्न हैं, उन पितरों को मैं सदा नमस्कार करता हूँ।
जो इन्द्र आदि देवताओं, दक्ष, मारीच, सप्तर्षियों तथा दूसरों के भी नेता हैं, कामना की पूर्ति करने वाले उन पितरो को मैं प्रणाम करता हूँ।
जो मनु आदि राजर्षियों, मुनिश्वरों तथा सूर्य और चन्द्रमा के भी नायक हैं, उन समस्त पितरों को मैं जल और समुद्र में भी नमस्कार करता हूँ।
नक्षत्रों, ग्रहों, वायु, अग्नि, आकाश और द्युलोक तथा पृथ्वी के भी जो नेता हैं, उन पितरों को मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।
जो देवर्षियों के जन्मदाता, समस्त लोकों द्वारा वन्दित तथा सदा अक्षय फल के दाता हैं, उन पितरों को मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।
प्रजापति, कश्यप, सोम, वरूण तथा योगेश्वरों के रूप में स्थित पितरों को सदा हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।
सातों लोकों में स्थित सात पितृगणों को नमस्कार है। मैं योगदृष्टिसम्पन्न स्वयम्भू ब्रह्माजी को प्रणाम करता हूँ।
चन्द्रमा के आधार पर प्रतिष्ठित तथा योगमूर्तिधारी पितृगणों को मैं प्रणाम करता हूँ। साथ ही सम्पूर्ण जगत् के पिता सोम को नमस्कार करता हूँ।
अग्निस्वरूप अन्य पितरों को मैं प्रणाम करता हूँ, क्योंकि यह सम्पूर्ण जगत् अग्नि और सोममय है।
जो पितर तेज में स्थित हैं, जो ये चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं तथा जो जगत्स्वरूप एवं ब्रह्मस्वरूप हैं, उन सम्पूर्ण योगी पितरो को मैं एकाग्रचित्त होकर प्रणाम करता हूँ। उन्हें बारम्बार नमस्कार है। वे स्वधाभोजी पितर मुझपर प्रसन्न हों।

विशेष - मार्कण्डेयपुराण में महात्मा रूचि द्वारा की गयी पितरों की यह स्तुति ‘पितृस्तोत्र’ कहलाता है। पितरों की प्रसन्नता की प्राप्ति के लिये इस स्तोत्र का पाठ किया जाता है। इस स्तोत्र की बड़ी महिमा है। श्राद्ध आदि के अवसरों पर ब्राह्मणों के भोजन के समय भी इसका पाठ करने-कराने का विधान है।

श्री भैरव मन्त्र



Picture श्री भैरव मन्त्र
“ॐ नमो भैंरुनाथ, काली का पुत्र! हाजिर होके, तुम मेरा कारज करो तुरत। कमर बिराज मस्तङ्गा लँगोट, घूँघर-माल। हाथ बिराज डमरु खप्पर त्रिशूल। मस्तक बिराज तिलक सिन्दूर। शीश बिराज जटा-जूट, गल बिराज नोद जनेऊ। ॐ नमो भैंरुनाथ, काली का पुत्र ! हाजिर होके तुम मेरा कारज करो तुरत। नित उठ करो आदेश-आदेश।”
विधिः पञ्चोपचार से पूजन। रविवार से शुरु करके २१ दिन तक मृत्तिका की मणियों की माला से नित्य अट्ठाइस (२८) जप करे। भोग में गुड़ व तेल का शीरा तथा उड़द का दही-बड़ा चढ़ाए और पूजा-जप के बाद उसे काले श्वान को खिलाए। यह प्रयोग किसी अटके हुए कार्य में सफलता प्राप्ति हेतु है।

शीघ्र धन प्राप्ति के लिए शीघ्र धन प्राप्ति के लिए
“ॐ नमः कर घोर-रुपिणि स्वाहा”
विधिः उक्त मन्त्र का जप प्रातः ११ माला देवी के किसी सिद्ध स्थान या नित्य पूजन स्थान पर करे। रात्रि में १०८ मिट्टी के दाने लेकर किसी कुएँ पर तथा सिद्ध-स्थान या नित्य-पूजन-स्थान की तरफ मुख करके दायाँ पैर कुएँ में लटकाकर व बाँएँ पैर को दाएँ पैर पर रखकर बैठे। प्रति-जप के साथ एक-एक करके १०८ मिट्टी के दाने कुएँ में डाले। ग्तारह दिन तक इसी प्रकार करे। यह प्रयोग शीघ्र आर्थिक सहायता प्राप्त करने के लिए है।

दर्शन हेतु श्री काली मन्त्र  “डण्ड भुज-डण्ड, प्रचण्ड नो खण्ड। प्रगट देवि, तुहि झुण्डन के झुण्ड। खगर दिखा खप्पर लियां, खड़ी कालका। तागड़दे मस्तङ्ग, तिलक मागरदे मस्तङ्ग। चोला जरी का, फागड़ दीफू, गले फुल-माल, जय जय जयन्त। जय आदि-शक्ति। जय कालका खपर-धनी। जय मचकुट छन्दनी देव। जय-जय महिरा, जय मरदिनी। जय-जय चुण्ड-मुण्ड भण्डासुर-खण्डनी, जय रक्त-बीज बिडाल-बिहण्डनी। जय निशुम्भ को दलनी, जय शिव राजेश्वरी। अमृत-यज्ञ धागी-धृट, दृवड़ दृवड़नी। बड़ रवि डर-डरनी ॐ ॐ ॐ।।”
 विधि- नवरात्रों में प्रतिपदा से नवमी तक घृत का दीपक प्रज्वलित रखते हुए अगर-बत्ती जलाकर प्रातः-सायं उक्त मन्त्र का ४०-४० जप करे। कम या ज्यादा न करे। जगदम्बा के दर्शन होते हैं।

सभा मोहन सभा मोहन
“गंगा किनार की पीली-पीली माटी। चन्दन के रुप में बिके हाटी-हाटी।। तुझे गंगा की कसम, तुझे कामाक्षा की दोहाई। मान ले सत-गुरु की बात, दिखा दे करामात। खींच जादू का कमान, चला दे मोहन बान। मोहे जन-जन के प्राण, तुझे गंगा की आन। ॐ नमः कामाक्षाय अं कं चं टं तं पं यं शं ह्रीं क्रीं श्रीं फट् स्वाहा।।”
विधिः- जिस दिन सभा को मोहित करना हो, उस दिन उषा-काल में नित्य कर्मों से निवृत्त होकर ‘गंगोट’ (गंगा की मिट्टी) का चन्दन गंगाजल में घिस ले और उसे १०८ बार उक्त मन्त्र से अभिमन्त्रित करे। फिर श्री कामाक्षा देवी का ध्यान कर उस चन्दन को ललाट (मस्तक) में लगा कर सभा में जाए, तो सभा के सभी लोग जप-कर्त्ता की बातों पर मुग्ध हो जाएँगे।

शत्रु-मोहन “चन्द्र-शत्रु राहू पर, विष्णु का चले चक्र। भागे भयभीत शत्रु, देखे जब चन्द्र वक्र। दोहाई कामाक्षा देवी की, फूँक-फूँक मोहन-मन्त्र। मोह-मोह-शत्रु मोह, सत्य तन्त्र-मन्त्र-यन्त्र।। तुझे शंकर की आन, सत-गुरु का कहना मान। ॐ नमः कामाक्षाय अं कं चं टं तं पं यं शं ह्रीं क्रीं श्रीं फट् स्वाहा।।”
विधिः- चन्द्र-ग्रहण या सूर्य-ग्रहण के समय किसी बारहों मास बहने वाली नदी के किनारे, कमर तक जल में पूर्व की ओर मुख करके खड़ा हो जाए। जब तक ग्रहण लगा रहे, श्री कामाक्षा देवी का ध्यान करते हुए उक्त मन्त्र का पाठ करता रहे। ग्रहण मोक्ष होने पर सात डुबकियाँ लगाकर स्नान करे। आठवीं डुबकी लगाकर नदी के जल के भीतर की मिट्टी बाहर निकाले। उस मिट्टी को अपने पास सुरक्षित रखे। जब किसी शत्रु को सम्मोहित करना हो, तब स्नानादि करके उक्त मन्त्र को १०८ बार पढ़कर उसी मिट्टी का चन्दन ललाट पर लगाए और शत्रु के पास जाए। शत्रु इस प्रकार सम्मोहित हो जायेगा कि शत्रुता छोड़कर उसी दिन से उसका सच्चा मित्र बन जाएगा।

पीलिया का मंत्र पीलिया का मंत्र
“ओम नमो बैताल। पीलिया को मिटावे, काटे झारे। रहै न नेंक। रहै कहूं तो डारुं छेद-छेद काटे। आन गुरु गोरख-नाथ। हन हन, हन हन, पच पच, फट् स्वाहा।”
विधिः- उक्त मन्त्र को ‘सूर्य-ग्रहण’ के समय १०८ बार जप कर सिद्ध करें। फिर शुक्र या शनिवार को काँसे की कटोरी में एक छटाँक तिल का तेल भरकर, उस कटोरी को रोगी के सिर पर रखें और कुएँ की ‘दूब’ से तेल को मन्त्र पढ़ते हुए तब तक चलाते रहें, जब तक तेल पीला न पड़ जाए। ऐसा २ या ३ बार करने से पीलिया रोग सदा के लिए चला जाता है।

दाद का मन्त्र दाद का मन्त्र
“ओम् गुरुभ्यो नमः। देव-देव। पूरा दिशा भेरुनाथ-दल। क्षमा भरो, विशाहरो वैर, बिन आज्ञा। राजा बासुकी की आन, हाथ वेग चलाव।”
विधिः- किसी पर्वकाल में एक हजार बार जप कर सिद्ध कर लें। फिर २१ बार पानी को अभिमन्त्रित कर रोगी को पिलावें, तो दाद रोग जाता है।

आँख की फूली काटने का मन्त्र आँख की फूली काटने का मन्त्र
“उत्तर काल, काल। सुन जोगी का बाप। इस्माइल जोगी की दो बेटी-एक माथे चूहा, एक काते फूला। दूहाई लोना चमारी की। एक शब्द साँचा, पिण्ड काँचा, फुरो मन्त्र-ईश्वरो वाचा”
विधिः- पर्वकाल में एक हजार बार जप कर सिद्धकर लें। फिर मन्त्र को २१ बार पढ़ते हुए लोहे की कील को धरती में गाड़ें, तो ‘फूली’ कटने लगती है।

नजर उतारने के उपाय December 4, 2008 – 9:09 pm यह पोस्ट पूर्व में भी प्रकाशित हो चुकी है। पाठकों के अनुरोध पर परिवर्धित सामग्री के साथ इसे पुनः प्रकाशित किया जा रहा है।

नजर उतारने के उपाय
१॰ बच्चे ने दूध पीना या खाना छोड़ दिया हो, तो रोटी या दूध को बच्चे पर से ‘आठ’ बार उतार के कुत्ते या गाय को खिला दें।

२॰ नमक, राई के दाने, पीली सरसों, मिर्च, पुरानी झाडू का एक टुकड़ा लेकर ‘नजर’ लगे व्यक्ति पर से ‘आठ’ बार उतार कर अग्नि में जला दें। ‘नजर’ लगी होगी, तो मिर्चों की धांस नहीँ आयेगी।

३॰ जिस व्यक्ति पर शंका हो, उसे बुलाकर ‘नजर’ लगे व्यक्ति पर उससे हाथ फिरवाने से लाभ होता है।

४॰ पश्चिमी देशों में नजर लगने की आशंका के चलते ‘टच वुड’ कहकर लकड़ी के फर्नीचर को छू लेता है। ऐसी मान्यता है कि उसे नजर नहीं लगेगी।

५॰ गिरजाघर से पवित्र-जल लाकर पिलाने का भी चलन है।

६॰ इस्लाम धर्म के अनुसार ‘नजर’ वाले पर से ‘अण्डा’ या ‘जानवर की कलेजी’ उतार के ‘बीच चौराहे’ पर रख दें। दरगाह या कब्र से फूल और अगर-बत्ती की राख लाकर ‘नजर’ वाले के सिरहाने रख दें या खिला दें।

७॰ एक लोटे में पानी लेकर उसमें नमक, खड़ी लाल मिर्च डालकर आठ बार उतारे। फिर थाली में दो आकृतियाँ- एक काजल से, दूसरी कुमकुम से बनाए। लोटे का पानी थाली में डाल दें। एक लम्बी काली या लाल रङ्ग की बिन्दी लेकर उसे तेल में भिगोकर ‘नजर’ वाले पर उतार कर उसका एक कोना चिमटे या सँडसी से पकड़ कर नीचे से जला दें। उसे थाली के बीचो-बीच ऊपर रखें। गरम-गरम काला तेल पानी वाली थाली में गिरेगा। यदि नजर लगी होगी तो, छन-छन आवाज आएगी, अन्यथा नहीं।

८॰ एक नींबू लेकर आठ बार उतार कर काट कर फेंक दें।

९॰ चाकू से जमीन पे एक आकृति बनाए। फिर चाकू से ‘नजर’ वाले व्यक्ति पर से एक-एक कर आठ बार उतारता जाए और आठों बार जमीन पर बनी आकृति को काटता जाए।

१०॰ गो-मूत्र पानी में मिलाकर थोड़ा-थोड़ा पिलाए और उसके आस-पास पानी में मिलाकर छिड़क दें। यदि स्नान करना हो तो थोड़ा स्नान के पानी में भी डाल दें।

११॰ थोड़ी सी राई, नमक, आटा या चोकर और ३, ५ या ७ लाल सूखी मिर्च लेकर, जिसे ‘नजर’ लगी हो, उसके सिर पर सात बार घुमाकर आग में डाल दें। ‘नजर’-दोष होने पर मिर्च जलने की गन्ध नहीं आती।

१२॰ पुराने कपड़े की सात चिन्दियाँ लेकर, सिर पर सात बार घुमाकर आग में जलाने से ‘नजर’ उतर जाती है।

१३॰ झाडू को चूल्हे / गैस की आग में जला कर, चूल्हे / गैस की तरफ पीठ कर के, बच्चे की माता इस जलती झाडू को 7 बार इस तरह स्पर्श कराए कि आग की तपन बच्चे को न लगे। तत्पश्चात् झाडू को अपनी टागों के बीच से निकाल कर बगैर देखे ही, चूल्हे की तरफ फेंक दें। कुछ समय तक झाडू को वहीं पड़ी रहने दें। बच्चे को लगी नजर दूर हो जायेगी।

१४॰ नमक की डली, काला कोयला, डंडी वाली 7 लाल मिर्च, राई के दाने तथा फिटकरी की डली को बच्चे या बड़े पर से 7 बार उबार कर, आग में डालने से सबकी नजर दूर हो जाती है।

१५॰ फिटकरी की डली को, 7 बार बच्चे/बड़े/पशु पर से 7 बार उबार कर आग में डालने से नजर तो दूर होती ही है, नजर लगाने वाले की धुंधली-सी शक्ल भी फिटकरी की डली पर आ जाती है।

१६॰ तेल की बत्ती जला कर, बच्चे/बड़े/पशु पर से 7 बार उबार कर दोहाई बोलते हुए दीवार पर चिपका दें। यदि नजर लगी होगी तो तेल की बत्ती भभक-भभक कर जलेगी। नजर न लगी होने पर शांत हो कर जलेगी।

१७॰ “नमो सत्य आदेश। गुरु का ओम नमो नजर, जहाँ पर-पीर न जानी। बोले छल सो अमृत-बानी। कहे नजर कहाँ से आई ? यहाँ की ठोर ताहि कौन बताई ? कौन जाति तेरी ? कहाँ ठाम ? किसकी बेटी ? कहा तेरा नाम ? कहां से उड़ी, कहां को जाई ? अब ही बस कर ले, तेरी माया तेरी जाए। सुना चित लाए, जैसी होय सुनाऊँ आय। तेलिन-तमोलिन, चूड़ी-चमारी, कायस्थनी, खत-रानी, कुम्हारी, महतरानी, राजा की रानी। जाको दोष, ताही के सिर पड़े। जाहर पीर नजर की रक्षा करे। मेरी भक्ति, गुरु की शक्ति। फुरो मन्त्र, ईश्वरी वाचा।”
विधि- मन्त्र पढ़ते हुए मोर-पंख से व्यक्ति को सिर से पैर तक झाड़ दें।

१८॰ “वन गुरु इद्यास करु। सात समुद्र सुखे जाती। चाक बाँधूँ, चाकोली बाँधूँ, दृष्ट बाँधूँ। नाम बाँधूँ तर बाल बिरामनाची आनिङ्गा।”



विधि- पहले मन्त्र को सूर्य-ग्रहण या चन्द्र-ग्रहण में सिद्ध करें। फिर प्रयोग हेतु उक्त मन्त्र के यन्त्र को पीपल के पत्ते पर किसी कलम से लिखें। “देवदत्त” के स्थान पर नजर लगे हुए व्यक्ति का नाम लिखें। यन्त्र को हाथ में लेकर उक्त मन्त्र ११ बार जपे। अगर-बत्ती का धुवाँ करे। यन्त्र को काले डोरे से बाँधकर रोगी को दे। रोगी मंगलवार या शुक्रवार को पूर्वाभिमुख होकर ताबीज को गले में धारण करें।

१९॰ “ॐ नमो आदेश। तू ज्या नावे, भूत पले, प्रेत पले, खबीस पले, अरिष्ट पले- सब पले। न पले, तर गुरु की, गोरखनाथ की, बीद याहीं चले। गुरु संगत, मेरी भगत, चले मन्त्र, ईश्वरी वाचा।”
विधि- उक्त मन्त्र से सात बार ‘राख’ को अभिमन्त्रित कर उससे रोगी के कपाल पर टिका लगा दें। नजर उतर जायेगी।

२०॰ “ॐ नमो भगवते श्री पार्श्वनाथाय, ह्रीं धरणेन्द्र-पद्मावती सहिताय। आत्म-चक्षु, प्रेत-चक्षु, पिशाच-चक्षु-सर्व नाशाय, सर्व-ज्वर-नाशाय, त्रायस त्रायस, ह्रीं नाथाय स्वाहा।”
विधि- उक्त जैन मन्त्र को सात बार पढ़कर व्यक्ति को जल पिला दें।

२१॰ “टोना-टोना कहाँ चले? चले बड़ जंगल। बड़े जंगल का करने ? बड़े रुख का पेड़ काटे। बड़े रुख का पेड़ काट के का करबो ? छप्पन छुरी बनाइब। छप्पन छुरी बना के का करबो ? अगवार काटब, पिछवार काटब, नौहर काटब, सासूर काटब, काट-कूट के पंग बहाइबै, तब राजा बली कहाईब।”
विधि- ‘दीपावली’ या ‘ग्रहण’-काल में एक दीपक के सम्मुख उक्त मन्त्र का २१ बार जप करे। फिर आवश्यकता पड़ने पर भभूत से झाड़े, तो नजर-टोना दूर होता है।

२२॰ डाइन या नजर झाड़ने का मन्त्र
“उदना देवी, सुदना गेल। सुदना देवी कहाँ गेल ? केकरे गेल ? सवा सौ लाख विधिया गुन, सिखे गेल। से गुन सिख के का कैले ? भूत के पेट पान कतल कर दैले। मारु लाती, फाटे छाती और फाटे डाइन के छाती। डाइन के गुन हमसे खुले। हमसे न खुले, तो हमरे गुरु से खुले। दुहाई ईश्वर-महादेव, गौरा-पार्वती, नैना-जोगिनी, कामरु-कामाख्या की।”
विधि- किसी को नजर लग गई हो या किसी डाइन ने कुछ कर दिया हो, उस समय वह किसी को पहचानता नहीं है। उस समय उसकी हालत पागल-जैसी हो जाती है। ऐसे समय उक्त मन्त्र को नौ बार हाथ में ‘जल’ लेकर पढ़े। फिर उस जल से छिंटा मारे तथा रोगी को पिलाए। रोगी ठीक हो जाएगा। यह स्वयं-सिद्ध मन्त्र है, केवल माँ पर विश्वास की आवश्यकता है।


२३॰ नजर झारने के मन्त्र
१॰ “हनुमान चलै, अवधेसरिका वृज-वण्डल धूम मचाई। टोना-टमर, डीठि-मूठि सबको खैचि बलाय। दोहाई छत्तीस कोटि देवता की, दोहाई लोना चमारिन की।”
२॰ “वजर-बन्द वजर-बन्द टोना-टमार, डीठि-नजर। दोहाई पीर करीम, दोहाई पीर असरफ की, दोहाई पीर अताफ की, दोहाई पीर पनारु की नीयक मैद।”
विधि- उक्त मन्त्र से ११ बार झारे, तो बालकों को लगी नजर या टोना का दोष दूर होता है।

२४॰ नजर-टोना झारने का मन्त्र
“आकाश बाँधो, पाताल बाँधो, बाँधो आपन काया। तीन डेग की पृथ्वी बाँधो, गुरु जी की दाया। जितना गुनिया गुन भेजे, उतना गुनिया गुन बांधे। टोना टोनमत जादू। दोहाई कौरु कमच्छा के, नोनाऊ चमाइन की। दोहाई ईश्वर गौरा-पार्वती की, ॐ ह्रीं फट् स्वाहा।”
विधि- नमक अभिमन्त्रित कर खिला दे। पशुओं के लिए विशेष फल-दायक है।



२५॰ नजर उतारने का मन्त्र

“ओम नमो आदेश गुरु का। गिरह-बाज नटनी का जाया, चलती बेर कबूतर खाया, पीवे दारु, खाय जो मांस, रोग-दोष को लावे फाँस। कहाँ-कहाँ से लावेगा? गुदगुद में सुद्रावेगा, बोटी-बोटी में से लावेगा, चाम-चाम में से लावेगा, नौ नाड़ी बहत्तर कोठा में से लावेगा, मार-मार बन्दी कर लावेगा। न लावेगा, तो अपनी माता की सेज पर पग रखेगा। मेरी भक्ति, गुरु की शक्ति, फुरो मन्त्र ईश्वरी वाचा।”
विधिः- छोटे बच्चों और सुन्दर स्त्रियों को नजर लग जाती है। उक्त मन्त्र पढ़कर मोर-पंख से झाड़ दें, तो नजर दोष दूर हो जाता है।



२६॰ नजर-टोना झारने का मन्त्र
“कालि देवि, कालि देवि, सेहो देवि, कहाँ गेलि, विजूवन खण्ड गेलि, कि करे गेलि, कोइल काठ काटे गेलि। कोइल काठ काटि कि करति। फलाना का धैल धराएल, कैल कराएल, भेजल भेजायल। डिठ मुठ गुण-वान काटि कटी पानि मस्त करै। दोहाई गौरा पार्वति क, ईश्वर महादेव क, कामरु कमख्या माई इति सीता-राम-लक्ष्मण-नरसिंघनाथ क।”
विधिः- किसी को नजर, टोना आदि संकट होने पर उक्त मन्त्र को पढ़कर कुश से झारे।

नोट :- नजर उतारते समय, सभी प्रयोगों में ऐसा बोलना आवश्यक है कि “इसको बच्चे की, बूढ़े की, स्त्री की, पुरूष की, पशु-पक्षी की, हिन्दू या मुसलमान की, घर वाले की या बाहर वाले की, जिसकी नजर लगी हो, वह इस बत्ती, नमक, राई, कोयले आदि सामान में आ जाए तथा नजर का सताया बच्चा-बूढ़ा ठीक हो जाए। सामग्री आग या बत्ती जला दूंगी या जला दूंगा।´´

भैरव वशीकरण मन्त्र भैरव वशीकरण मन्त्र
१॰ “ॐनमो रुद्राय, कपिलाय, भैरवाय, त्रिलोक-नाथाय, ॐ ह्रीं फट् स्वाहा।”
विधिः- सर्व-प्रथम किसी रविवार को गुग्गुल, धूप, दीपक सहित उपर्युक्त मन्त्र का पन्द्रह हजार जप कर उसे सिद्ध करे। फिर आवश्यकतानुसार इस मन्त्र का १०८ बार जप कर एक लौंग को अभिमन्त्रित लौंग को, जिसे वशीभूत करना हो, उसे खिलाए।

२॰ “ॐ नमो काला गोरा भैरुं वीर, पर-नारी सूँ देही सीर। गुड़ परिदीयी गोरख जाणी, गुद्दी पकड़ दे भैंरु आणी, गुड़, रक्त का धरि ग्रास, कदे न छोड़े मेरा पाश। जीवत सवै देवरो, मूआ सेवै मसाण। पकड़ पलना ल्यावे। काला भैंरु न लावै, तो अक्षर देवी कालिका की आण। फुरो मन्त्र, ईश्वरी वाचा।”
विधिः- २१,००० जप। आवश्यकता पड़ने पर २१ बार गुड़ को अभिमन्त्रित कर साध्य को खिलाए।

३॰ “ॐ भ्रां भ्रां भूँ भैरवाय स्वाहा। ॐ भं भं भं अमुक-मोहनाय स्वाहा।”
विधिः- उक्त मन्त्र को सात बार पढ़कर पीपल के पत्ते को अभिमन्त्रित करे। फिर मन्त्र को उस पत्ते पर लिखकर, जिसका वशीकरण करना हो, उसके घर में फेंक देवे। या घर के पिछवाड़े गाड़ दे। यही क्रिया ‘छितवन’ या ‘फुरहठ’ के पत्ते द्वारा भी हो सकती है।

श्री भैरव मन्त्र


Picture श्री भैरव मन्त्र
“ॐ नमो भैंरुनाथ, काली का पुत्र! हाजिर होके, तुम मेरा कारज करो तुरत। कमर बिराज मस्तङ्गा लँगोट, घूँघर-माल। हाथ बिराज डमरु खप्पर त्रिशूल। मस्तक बिराज तिलक सिन्दूर। शीश बिराज जटा-जूट, गल बिराज नोद जनेऊ। ॐ नमो भैंरुनाथ, काली का पुत्र ! हाजिर होके तुम मेरा कारज करो तुरत। नित उठ करो आदेश-आदेश।”
विधिः पञ्चोपचार से पूजन। रविवार से शुरु करके २१ दिन तक मृत्तिका की मणियों की माला से नित्य अट्ठाइस (२८) जप करे। भोग में गुड़ व तेल का शीरा तथा उड़द का दही-बड़ा चढ़ाए और पूजा-जप के बाद उसे काले श्वान को खिलाए। यह प्रयोग किसी अटके हुए कार्य में सफलता प्राप्ति हेतु है।

शीघ्र धन प्राप्ति के लिए शीघ्र धन प्राप्ति के लिए
“ॐ नमः कर घोर-रुपिणि स्वाहा”
विधिः उक्त मन्त्र का जप प्रातः ११ माला देवी के किसी सिद्ध स्थान या नित्य पूजन स्थान पर करे। रात्रि में १०८ मिट्टी के दाने लेकर किसी कुएँ पर तथा सिद्ध-स्थान या नित्य-पूजन-स्थान की तरफ मुख करके दायाँ पैर कुएँ में लटकाकर व बाँएँ पैर को दाएँ पैर पर रखकर बैठे। प्रति-जप के साथ एक-एक करके १०८ मिट्टी के दाने कुएँ में डाले। ग्तारह दिन तक इसी प्रकार करे। यह प्रयोग शीघ्र आर्थिक सहायता प्राप्त करने के लिए है।

दर्शन हेतु श्री काली मन्त्र  “डण्ड भुज-डण्ड, प्रचण्ड नो खण्ड। प्रगट देवि, तुहि झुण्डन के झुण्ड। खगर दिखा खप्पर लियां, खड़ी कालका। तागड़दे मस्तङ्ग, तिलक मागरदे मस्तङ्ग। चोला जरी का, फागड़ दीफू, गले फुल-माल, जय जय जयन्त। जय आदि-शक्ति। जय कालका खपर-धनी। जय मचकुट छन्दनी देव। जय-जय महिरा, जय मरदिनी। जय-जय चुण्ड-मुण्ड भण्डासुर-खण्डनी, जय रक्त-बीज बिडाल-बिहण्डनी। जय निशुम्भ को दलनी, जय शिव राजेश्वरी। अमृत-यज्ञ धागी-धृट, दृवड़ दृवड़नी। बड़ रवि डर-डरनी ॐ ॐ ॐ।।”
 विधि- नवरात्रों में प्रतिपदा से नवमी तक घृत का दीपक प्रज्वलित रखते हुए अगर-बत्ती जलाकर प्रातः-सायं उक्त मन्त्र का ४०-४० जप करे। कम या ज्यादा न करे। जगदम्बा के दर्शन होते हैं।

सभा मोहन सभा मोहन
“गंगा किनार की पीली-पीली माटी। चन्दन के रुप में बिके हाटी-हाटी।। तुझे गंगा की कसम, तुझे कामाक्षा की दोहाई। मान ले सत-गुरु की बात, दिखा दे करामात। खींच जादू का कमान, चला दे मोहन बान। मोहे जन-जन के प्राण, तुझे गंगा की आन। ॐ नमः कामाक्षाय अं कं चं टं तं पं यं शं ह्रीं क्रीं श्रीं फट् स्वाहा।।”
विधिः- जिस दिन सभा को मोहित करना हो, उस दिन उषा-काल में नित्य कर्मों से निवृत्त होकर ‘गंगोट’ (गंगा की मिट्टी) का चन्दन गंगाजल में घिस ले और उसे १०८ बार उक्त मन्त्र से अभिमन्त्रित करे। फिर श्री कामाक्षा देवी का ध्यान कर उस चन्दन को ललाट (मस्तक) में लगा कर सभा में जाए, तो सभा के सभी लोग जप-कर्त्ता की बातों पर मुग्ध हो जाएँगे।

शत्रु-मोहन “चन्द्र-शत्रु राहू पर, विष्णु का चले चक्र। भागे भयभीत शत्रु, देखे जब चन्द्र वक्र। दोहाई कामाक्षा देवी की, फूँक-फूँक मोहन-मन्त्र। मोह-मोह-शत्रु मोह, सत्य तन्त्र-मन्त्र-यन्त्र।। तुझे शंकर की आन, सत-गुरु का कहना मान। ॐ नमः कामाक्षाय अं कं चं टं तं पं यं शं ह्रीं क्रीं श्रीं फट् स्वाहा।।”
विधिः- चन्द्र-ग्रहण या सूर्य-ग्रहण के समय किसी बारहों मास बहने वाली नदी के किनारे, कमर तक जल में पूर्व की ओर मुख करके खड़ा हो जाए। जब तक ग्रहण लगा रहे, श्री कामाक्षा देवी का ध्यान करते हुए उक्त मन्त्र का पाठ करता रहे। ग्रहण मोक्ष होने पर सात डुबकियाँ लगाकर स्नान करे। आठवीं डुबकी लगाकर नदी के जल के भीतर की मिट्टी बाहर निकाले। उस मिट्टी को अपने पास सुरक्षित रखे। जब किसी शत्रु को सम्मोहित करना हो, तब स्नानादि करके उक्त मन्त्र को १०८ बार पढ़कर उसी मिट्टी का चन्दन ललाट पर लगाए और शत्रु के पास जाए। शत्रु इस प्रकार सम्मोहित हो जायेगा कि शत्रुता छोड़कर उसी दिन से उसका सच्चा मित्र बन जाएगा।

पीलिया का मंत्र पीलिया का मंत्र
“ओम नमो बैताल। पीलिया को मिटावे, काटे झारे। रहै न नेंक। रहै कहूं तो डारुं छेद-छेद काटे। आन गुरु गोरख-नाथ। हन हन, हन हन, पच पच, फट् स्वाहा।”
विधिः- उक्त मन्त्र को ‘सूर्य-ग्रहण’ के समय १०८ बार जप कर सिद्ध करें। फिर शुक्र या शनिवार को काँसे की कटोरी में एक छटाँक तिल का तेल भरकर, उस कटोरी को रोगी के सिर पर रखें और कुएँ की ‘दूब’ से तेल को मन्त्र पढ़ते हुए तब तक चलाते रहें, जब तक तेल पीला न पड़ जाए। ऐसा २ या ३ बार करने से पीलिया रोग सदा के लिए चला जाता है।

दाद का मन्त्र दाद का मन्त्र
“ओम् गुरुभ्यो नमः। देव-देव। पूरा दिशा भेरुनाथ-दल। क्षमा भरो, विशाहरो वैर, बिन आज्ञा। राजा बासुकी की आन, हाथ वेग चलाव।”
विधिः- किसी पर्वकाल में एक हजार बार जप कर सिद्ध कर लें। फिर २१ बार पानी को अभिमन्त्रित कर रोगी को पिलावें, तो दाद रोग जाता है।

आँख की फूली काटने का मन्त्र आँख की फूली काटने का मन्त्र
“उत्तर काल, काल। सुन जोगी का बाप। इस्माइल जोगी की दो बेटी-एक माथे चूहा, एक काते फूला। दूहाई लोना चमारी की। एक शब्द साँचा, पिण्ड काँचा, फुरो मन्त्र-ईश्वरो वाचा”
विधिः- पर्वकाल में एक हजार बार जप कर सिद्धकर लें। फिर मन्त्र को २१ बार पढ़ते हुए लोहे की कील को धरती में गाड़ें, तो ‘फूली’ कटने लगती है।

नजर उतारने के उपाय December 4, 2008 – 9:09 pm यह पोस्ट पूर्व में भी प्रकाशित हो चुकी है। पाठकों के अनुरोध पर परिवर्धित सामग्री के साथ इसे पुनः प्रकाशित किया जा रहा है।

नजर उतारने के उपाय
१॰ बच्चे ने दूध पीना या खाना छोड़ दिया हो, तो रोटी या दूध को बच्चे पर से ‘आठ’ बार उतार के कुत्ते या गाय को खिला दें।

२॰ नमक, राई के दाने, पीली सरसों, मिर्च, पुरानी झाडू का एक टुकड़ा लेकर ‘नजर’ लगे व्यक्ति पर से ‘आठ’ बार उतार कर अग्नि में जला दें। ‘नजर’ लगी होगी, तो मिर्चों की धांस नहीँ आयेगी।

३॰ जिस व्यक्ति पर शंका हो, उसे बुलाकर ‘नजर’ लगे व्यक्ति पर उससे हाथ फिरवाने से लाभ होता है।

४॰ पश्चिमी देशों में नजर लगने की आशंका के चलते ‘टच वुड’ कहकर लकड़ी के फर्नीचर को छू लेता है। ऐसी मान्यता है कि उसे नजर नहीं लगेगी।

५॰ गिरजाघर से पवित्र-जल लाकर पिलाने का भी चलन है।

६॰ इस्लाम धर्म के अनुसार ‘नजर’ वाले पर से ‘अण्डा’ या ‘जानवर की कलेजी’ उतार के ‘बीच चौराहे’ पर रख दें। दरगाह या कब्र से फूल और अगर-बत्ती की राख लाकर ‘नजर’ वाले के सिरहाने रख दें या खिला दें।

७॰ एक लोटे में पानी लेकर उसमें नमक, खड़ी लाल मिर्च डालकर आठ बार उतारे। फिर थाली में दो आकृतियाँ- एक काजल से, दूसरी कुमकुम से बनाए। लोटे का पानी थाली में डाल दें। एक लम्बी काली या लाल रङ्ग की बिन्दी लेकर उसे तेल में भिगोकर ‘नजर’ वाले पर उतार कर उसका एक कोना चिमटे या सँडसी से पकड़ कर नीचे से जला दें। उसे थाली के बीचो-बीच ऊपर रखें। गरम-गरम काला तेल पानी वाली थाली में गिरेगा। यदि नजर लगी होगी तो, छन-छन आवाज आएगी, अन्यथा नहीं।

८॰ एक नींबू लेकर आठ बार उतार कर काट कर फेंक दें।

९॰ चाकू से जमीन पे एक आकृति बनाए। फिर चाकू से ‘नजर’ वाले व्यक्ति पर से एक-एक कर आठ बार उतारता जाए और आठों बार जमीन पर बनी आकृति को काटता जाए।

१०॰ गो-मूत्र पानी में मिलाकर थोड़ा-थोड़ा पिलाए और उसके आस-पास पानी में मिलाकर छिड़क दें। यदि स्नान करना हो तो थोड़ा स्नान के पानी में भी डाल दें।

११॰ थोड़ी सी राई, नमक, आटा या चोकर और ३, ५ या ७ लाल सूखी मिर्च लेकर, जिसे ‘नजर’ लगी हो, उसके सिर पर सात बार घुमाकर आग में डाल दें। ‘नजर’-दोष होने पर मिर्च जलने की गन्ध नहीं आती।

१२॰ पुराने कपड़े की सात चिन्दियाँ लेकर, सिर पर सात बार घुमाकर आग में जलाने से ‘नजर’ उतर जाती है।

१३॰ झाडू को चूल्हे / गैस की आग में जला कर, चूल्हे / गैस की तरफ पीठ कर के, बच्चे की माता इस जलती झाडू को 7 बार इस तरह स्पर्श कराए कि आग की तपन बच्चे को न लगे। तत्पश्चात् झाडू को अपनी टागों के बीच से निकाल कर बगैर देखे ही, चूल्हे की तरफ फेंक दें। कुछ समय तक झाडू को वहीं पड़ी रहने दें। बच्चे को लगी नजर दूर हो जायेगी।

१४॰ नमक की डली, काला कोयला, डंडी वाली 7 लाल मिर्च, राई के दाने तथा फिटकरी की डली को बच्चे या बड़े पर से 7 बार उबार कर, आग में डालने से सबकी नजर दूर हो जाती है।

१५॰ फिटकरी की डली को, 7 बार बच्चे/बड़े/पशु पर से 7 बार उबार कर आग में डालने से नजर तो दूर होती ही है, नजर लगाने वाले की धुंधली-सी शक्ल भी फिटकरी की डली पर आ जाती है।

१६॰ तेल की बत्ती जला कर, बच्चे/बड़े/पशु पर से 7 बार उबार कर दोहाई बोलते हुए दीवार पर चिपका दें। यदि नजर लगी होगी तो तेल की बत्ती भभक-भभक कर जलेगी। नजर न लगी होने पर शांत हो कर जलेगी।

१७॰ “नमो सत्य आदेश। गुरु का ओम नमो नजर, जहाँ पर-पीर न जानी। बोले छल सो अमृत-बानी। कहे नजर कहाँ से आई ? यहाँ की ठोर ताहि कौन बताई ? कौन जाति तेरी ? कहाँ ठाम ? किसकी बेटी ? कहा तेरा नाम ? कहां से उड़ी, कहां को जाई ? अब ही बस कर ले, तेरी माया तेरी जाए। सुना चित लाए, जैसी होय सुनाऊँ आय। तेलिन-तमोलिन, चूड़ी-चमारी, कायस्थनी, खत-रानी, कुम्हारी, महतरानी, राजा की रानी। जाको दोष, ताही के सिर पड़े। जाहर पीर नजर की रक्षा करे। मेरी भक्ति, गुरु की शक्ति। फुरो मन्त्र, ईश्वरी वाचा।”
विधि- मन्त्र पढ़ते हुए मोर-पंख से व्यक्ति को सिर से पैर तक झाड़ दें।

१८॰ “वन गुरु इद्यास करु। सात समुद्र सुखे जाती। चाक बाँधूँ, चाकोली बाँधूँ, दृष्ट बाँधूँ। नाम बाँधूँ तर बाल बिरामनाची आनिङ्गा।”



विधि- पहले मन्त्र को सूर्य-ग्रहण या चन्द्र-ग्रहण में सिद्ध करें। फिर प्रयोग हेतु उक्त मन्त्र के यन्त्र को पीपल के पत्ते पर किसी कलम से लिखें। “देवदत्त” के स्थान पर नजर लगे हुए व्यक्ति का नाम लिखें। यन्त्र को हाथ में लेकर उक्त मन्त्र ११ बार जपे। अगर-बत्ती का धुवाँ करे। यन्त्र को काले डोरे से बाँधकर रोगी को दे। रोगी मंगलवार या शुक्रवार को पूर्वाभिमुख होकर ताबीज को गले में धारण करें।

१९॰ “ॐ नमो आदेश। तू ज्या नावे, भूत पले, प्रेत पले, खबीस पले, अरिष्ट पले- सब पले। न पले, तर गुरु की, गोरखनाथ की, बीद याहीं चले। गुरु संगत, मेरी भगत, चले मन्त्र, ईश्वरी वाचा।”
विधि- उक्त मन्त्र से सात बार ‘राख’ को अभिमन्त्रित कर उससे रोगी के कपाल पर टिका लगा दें। नजर उतर जायेगी।

२०॰ “ॐ नमो भगवते श्री पार्श्वनाथाय, ह्रीं धरणेन्द्र-पद्मावती सहिताय। आत्म-चक्षु, प्रेत-चक्षु, पिशाच-चक्षु-सर्व नाशाय, सर्व-ज्वर-नाशाय, त्रायस त्रायस, ह्रीं नाथाय स्वाहा।”
विधि- उक्त जैन मन्त्र को सात बार पढ़कर व्यक्ति को जल पिला दें।

२१॰ “टोना-टोना कहाँ चले? चले बड़ जंगल। बड़े जंगल का करने ? बड़े रुख का पेड़ काटे। बड़े रुख का पेड़ काट के का करबो ? छप्पन छुरी बनाइब। छप्पन छुरी बना के का करबो ? अगवार काटब, पिछवार काटब, नौहर काटब, सासूर काटब, काट-कूट के पंग बहाइबै, तब राजा बली कहाईब।”
विधि- ‘दीपावली’ या ‘ग्रहण’-काल में एक दीपक के सम्मुख उक्त मन्त्र का २१ बार जप करे। फिर आवश्यकता पड़ने पर भभूत से झाड़े, तो नजर-टोना दूर होता है।

२२॰ डाइन या नजर झाड़ने का मन्त्र
“उदना देवी, सुदना गेल। सुदना देवी कहाँ गेल ? केकरे गेल ? सवा सौ लाख विधिया गुन, सिखे गेल। से गुन सिख के का कैले ? भूत के पेट पान कतल कर दैले। मारु लाती, फाटे छाती और फाटे डाइन के छाती। डाइन के गुन हमसे खुले। हमसे न खुले, तो हमरे गुरु से खुले। दुहाई ईश्वर-महादेव, गौरा-पार्वती, नैना-जोगिनी, कामरु-कामाख्या की।”
विधि- किसी को नजर लग गई हो या किसी डाइन ने कुछ कर दिया हो, उस समय वह किसी को पहचानता नहीं है। उस समय उसकी हालत पागल-जैसी हो जाती है। ऐसे समय उक्त मन्त्र को नौ बार हाथ में ‘जल’ लेकर पढ़े। फिर उस जल से छिंटा मारे तथा रोगी को पिलाए। रोगी ठीक हो जाएगा। यह स्वयं-सिद्ध मन्त्र है, केवल माँ पर विश्वास की आवश्यकता है।


२३॰ नजर झारने के मन्त्र
१॰ “हनुमान चलै, अवधेसरिका वृज-वण्डल धूम मचाई। टोना-टमर, डीठि-मूठि सबको खैचि बलाय। दोहाई छत्तीस कोटि देवता की, दोहाई लोना चमारिन की।”
२॰ “वजर-बन्द वजर-बन्द टोना-टमार, डीठि-नजर। दोहाई पीर करीम, दोहाई पीर असरफ की, दोहाई पीर अताफ की, दोहाई पीर पनारु की नीयक मैद।”
विधि- उक्त मन्त्र से ११ बार झारे, तो बालकों को लगी नजर या टोना का दोष दूर होता है।

२४॰ नजर-टोना झारने का मन्त्र
“आकाश बाँधो, पाताल बाँधो, बाँधो आपन काया। तीन डेग की पृथ्वी बाँधो, गुरु जी की दाया। जितना गुनिया गुन भेजे, उतना गुनिया गुन बांधे। टोना टोनमत जादू। दोहाई कौरु कमच्छा के, नोनाऊ चमाइन की। दोहाई ईश्वर गौरा-पार्वती की, ॐ ह्रीं फट् स्वाहा।”
विधि- नमक अभिमन्त्रित कर खिला दे। पशुओं के लिए विशेष फल-दायक है।



२५॰ नजर उतारने का मन्त्र

“ओम नमो आदेश गुरु का। गिरह-बाज नटनी का जाया, चलती बेर कबूतर खाया, पीवे दारु, खाय जो मांस, रोग-दोष को लावे फाँस। कहाँ-कहाँ से लावेगा? गुदगुद में सुद्रावेगा, बोटी-बोटी में से लावेगा, चाम-चाम में से लावेगा, नौ नाड़ी बहत्तर कोठा में से लावेगा, मार-मार बन्दी कर लावेगा। न लावेगा, तो अपनी माता की सेज पर पग रखेगा। मेरी भक्ति, गुरु की शक्ति, फुरो मन्त्र ईश्वरी वाचा।”
विधिः- छोटे बच्चों और सुन्दर स्त्रियों को नजर लग जाती है। उक्त मन्त्र पढ़कर मोर-पंख से झाड़ दें, तो नजर दोष दूर हो जाता है।



२६॰ नजर-टोना झारने का मन्त्र
“कालि देवि, कालि देवि, सेहो देवि, कहाँ गेलि, विजूवन खण्ड गेलि, कि करे गेलि, कोइल काठ काटे गेलि। कोइल काठ काटि कि करति। फलाना का धैल धराएल, कैल कराएल, भेजल भेजायल। डिठ मुठ गुण-वान काटि कटी पानि मस्त करै। दोहाई गौरा पार्वति क, ईश्वर महादेव क, कामरु कमख्या माई इति सीता-राम-लक्ष्मण-नरसिंघनाथ क।”
विधिः- किसी को नजर, टोना आदि संकट होने पर उक्त मन्त्र को पढ़कर कुश से झारे।

नोट :- नजर उतारते समय, सभी प्रयोगों में ऐसा बोलना आवश्यक है कि “इसको बच्चे की, बूढ़े की, स्त्री की, पुरूष की, पशु-पक्षी की, हिन्दू या मुसलमान की, घर वाले की या बाहर वाले की, जिसकी नजर लगी हो, वह इस बत्ती, नमक, राई, कोयले आदि सामान में आ जाए तथा नजर का सताया बच्चा-बूढ़ा ठीक हो जाए। सामग्री आग या बत्ती जला दूंगी या जला दूंगा।´´

भैरव वशीकरण मन्त्र भैरव वशीकरण मन्त्र
१॰ “ॐनमो रुद्राय, कपिलाय, भैरवाय, त्रिलोक-नाथाय, ॐ ह्रीं फट् स्वाहा।”
विधिः- सर्व-प्रथम किसी रविवार को गुग्गुल, धूप, दीपक सहित उपर्युक्त मन्त्र का पन्द्रह हजार जप कर उसे सिद्ध करे। फिर आवश्यकतानुसार इस मन्त्र का १०८ बार जप कर एक लौंग को अभिमन्त्रित लौंग को, जिसे वशीभूत करना हो, उसे खिलाए।

२॰ “ॐ नमो काला गोरा भैरुं वीर, पर-नारी सूँ देही सीर। गुड़ परिदीयी गोरख जाणी, गुद्दी पकड़ दे भैंरु आणी, गुड़, रक्त का धरि ग्रास, कदे न छोड़े मेरा पाश। जीवत सवै देवरो, मूआ सेवै मसाण। पकड़ पलना ल्यावे। काला भैंरु न लावै, तो अक्षर देवी कालिका की आण। फुरो मन्त्र, ईश्वरी वाचा।”
विधिः- २१,००० जप। आवश्यकता पड़ने पर २१ बार गुड़ को अभिमन्त्रित कर साध्य को खिलाए।

३॰ “ॐ भ्रां भ्रां भूँ भैरवाय स्वाहा। ॐ भं भं भं अमुक-मोहनाय स्वाहा।”
विधिः- उक्त मन्त्र को सात बार पढ़कर पीपल के पत्ते को अभिमन्त्रित करे। फिर मन्त्र को उस पत्ते पर लिखकर, जिसका वशीकरण करना हो, उसके घर में फेंक देवे। या घर के पिछवाड़े गाड़ दे। यही क्रिया ‘छितवन’ या ‘फुरहठ’ के पत्ते द्वारा भी हो सकती है।

श्री भैरव मन्त्र


Picture श्री भैरव मन्त्र
“ॐ नमो भैंरुनाथ, काली का पुत्र! हाजिर होके, तुम मेरा कारज करो तुरत। कमर बिराज मस्तङ्गा लँगोट, घूँघर-माल। हाथ बिराज डमरु खप्पर त्रिशूल। मस्तक बिराज तिलक सिन्दूर। शीश बिराज जटा-जूट, गल बिराज नोद जनेऊ। ॐ नमो भैंरुनाथ, काली का पुत्र ! हाजिर होके तुम मेरा कारज करो तुरत। नित उठ करो आदेश-आदेश।”
विधिः पञ्चोपचार से पूजन। रविवार से शुरु करके २१ दिन तक मृत्तिका की मणियों की माला से नित्य अट्ठाइस (२८) जप करे। भोग में गुड़ व तेल का शीरा तथा उड़द का दही-बड़ा चढ़ाए और पूजा-जप के बाद उसे काले श्वान को खिलाए। यह प्रयोग किसी अटके हुए कार्य में सफलता प्राप्ति हेतु है।

शीघ्र धन प्राप्ति के लिए शीघ्र धन प्राप्ति के लिए
“ॐ नमः कर घोर-रुपिणि स्वाहा”
विधिः उक्त मन्त्र का जप प्रातः ११ माला देवी के किसी सिद्ध स्थान या नित्य पूजन स्थान पर करे। रात्रि में १०८ मिट्टी के दाने लेकर किसी कुएँ पर तथा सिद्ध-स्थान या नित्य-पूजन-स्थान की तरफ मुख करके दायाँ पैर कुएँ में लटकाकर व बाँएँ पैर को दाएँ पैर पर रखकर बैठे। प्रति-जप के साथ एक-एक करके १०८ मिट्टी के दाने कुएँ में डाले। ग्तारह दिन तक इसी प्रकार करे। यह प्रयोग शीघ्र आर्थिक सहायता प्राप्त करने के लिए है।

दर्शन हेतु श्री काली मन्त्र  “डण्ड भुज-डण्ड, प्रचण्ड नो खण्ड। प्रगट देवि, तुहि झुण्डन के झुण्ड। खगर दिखा खप्पर लियां, खड़ी कालका। तागड़दे मस्तङ्ग, तिलक मागरदे मस्तङ्ग। चोला जरी का, फागड़ दीफू, गले फुल-माल, जय जय जयन्त। जय आदि-शक्ति। जय कालका खपर-धनी। जय मचकुट छन्दनी देव। जय-जय महिरा, जय मरदिनी। जय-जय चुण्ड-मुण्ड भण्डासुर-खण्डनी, जय रक्त-बीज बिडाल-बिहण्डनी। जय निशुम्भ को दलनी, जय शिव राजेश्वरी। अमृत-यज्ञ धागी-धृट, दृवड़ दृवड़नी। बड़ रवि डर-डरनी ॐ ॐ ॐ।।”
 विधि- नवरात्रों में प्रतिपदा से नवमी तक घृत का दीपक प्रज्वलित रखते हुए अगर-बत्ती जलाकर प्रातः-सायं उक्त मन्त्र का ४०-४० जप करे। कम या ज्यादा न करे। जगदम्बा के दर्शन होते हैं।

सभा मोहन सभा मोहन
“गंगा किनार की पीली-पीली माटी। चन्दन के रुप में बिके हाटी-हाटी।। तुझे गंगा की कसम, तुझे कामाक्षा की दोहाई। मान ले सत-गुरु की बात, दिखा दे करामात। खींच जादू का कमान, चला दे मोहन बान। मोहे जन-जन के प्राण, तुझे गंगा की आन। ॐ नमः कामाक्षाय अं कं चं टं तं पं यं शं ह्रीं क्रीं श्रीं फट् स्वाहा।।”
विधिः- जिस दिन सभा को मोहित करना हो, उस दिन उषा-काल में नित्य कर्मों से निवृत्त होकर ‘गंगोट’ (गंगा की मिट्टी) का चन्दन गंगाजल में घिस ले और उसे १०८ बार उक्त मन्त्र से अभिमन्त्रित करे। फिर श्री कामाक्षा देवी का ध्यान कर उस चन्दन को ललाट (मस्तक) में लगा कर सभा में जाए, तो सभा के सभी लोग जप-कर्त्ता की बातों पर मुग्ध हो जाएँगे।

शत्रु-मोहन “चन्द्र-शत्रु राहू पर, विष्णु का चले चक्र। भागे भयभीत शत्रु, देखे जब चन्द्र वक्र। दोहाई कामाक्षा देवी की, फूँक-फूँक मोहन-मन्त्र। मोह-मोह-शत्रु मोह, सत्य तन्त्र-मन्त्र-यन्त्र।। तुझे शंकर की आन, सत-गुरु का कहना मान। ॐ नमः कामाक्षाय अं कं चं टं तं पं यं शं ह्रीं क्रीं श्रीं फट् स्वाहा।।”
विधिः- चन्द्र-ग्रहण या सूर्य-ग्रहण के समय किसी बारहों मास बहने वाली नदी के किनारे, कमर तक जल में पूर्व की ओर मुख करके खड़ा हो जाए। जब तक ग्रहण लगा रहे, श्री कामाक्षा देवी का ध्यान करते हुए उक्त मन्त्र का पाठ करता रहे। ग्रहण मोक्ष होने पर सात डुबकियाँ लगाकर स्नान करे। आठवीं डुबकी लगाकर नदी के जल के भीतर की मिट्टी बाहर निकाले। उस मिट्टी को अपने पास सुरक्षित रखे। जब किसी शत्रु को सम्मोहित करना हो, तब स्नानादि करके उक्त मन्त्र को १०८ बार पढ़कर उसी मिट्टी का चन्दन ललाट पर लगाए और शत्रु के पास जाए। शत्रु इस प्रकार सम्मोहित हो जायेगा कि शत्रुता छोड़कर उसी दिन से उसका सच्चा मित्र बन जाएगा।

पीलिया का मंत्र पीलिया का मंत्र
“ओम नमो बैताल। पीलिया को मिटावे, काटे झारे। रहै न नेंक। रहै कहूं तो डारुं छेद-छेद काटे। आन गुरु गोरख-नाथ। हन हन, हन हन, पच पच, फट् स्वाहा।”
विधिः- उक्त मन्त्र को ‘सूर्य-ग्रहण’ के समय १०८ बार जप कर सिद्ध करें। फिर शुक्र या शनिवार को काँसे की कटोरी में एक छटाँक तिल का तेल भरकर, उस कटोरी को रोगी के सिर पर रखें और कुएँ की ‘दूब’ से तेल को मन्त्र पढ़ते हुए तब तक चलाते रहें, जब तक तेल पीला न पड़ जाए। ऐसा २ या ३ बार करने से पीलिया रोग सदा के लिए चला जाता है।

दाद का मन्त्र दाद का मन्त्र
“ओम् गुरुभ्यो नमः। देव-देव। पूरा दिशा भेरुनाथ-दल। क्षमा भरो, विशाहरो वैर, बिन आज्ञा। राजा बासुकी की आन, हाथ वेग चलाव।”
विधिः- किसी पर्वकाल में एक हजार बार जप कर सिद्ध कर लें। फिर २१ बार पानी को अभिमन्त्रित कर रोगी को पिलावें, तो दाद रोग जाता है।

आँख की फूली काटने का मन्त्र आँख की फूली काटने का मन्त्र
“उत्तर काल, काल। सुन जोगी का बाप। इस्माइल जोगी की दो बेटी-एक माथे चूहा, एक काते फूला। दूहाई लोना चमारी की। एक शब्द साँचा, पिण्ड काँचा, फुरो मन्त्र-ईश्वरो वाचा”
विधिः- पर्वकाल में एक हजार बार जप कर सिद्धकर लें। फिर मन्त्र को २१ बार पढ़ते हुए लोहे की कील को धरती में गाड़ें, तो ‘फूली’ कटने लगती है।

नजर उतारने के उपाय December 4, 2008 – 9:09 pm यह पोस्ट पूर्व में भी प्रकाशित हो चुकी है। पाठकों के अनुरोध पर परिवर्धित सामग्री के साथ इसे पुनः प्रकाशित किया जा रहा है।

नजर उतारने के उपाय
१॰ बच्चे ने दूध पीना या खाना छोड़ दिया हो, तो रोटी या दूध को बच्चे पर से ‘आठ’ बार उतार के कुत्ते या गाय को खिला दें।

२॰ नमक, राई के दाने, पीली सरसों, मिर्च, पुरानी झाडू का एक टुकड़ा लेकर ‘नजर’ लगे व्यक्ति पर से ‘आठ’ बार उतार कर अग्नि में जला दें। ‘नजर’ लगी होगी, तो मिर्चों की धांस नहीँ आयेगी।

३॰ जिस व्यक्ति पर शंका हो, उसे बुलाकर ‘नजर’ लगे व्यक्ति पर उससे हाथ फिरवाने से लाभ होता है।

४॰ पश्चिमी देशों में नजर लगने की आशंका के चलते ‘टच वुड’ कहकर लकड़ी के फर्नीचर को छू लेता है। ऐसी मान्यता है कि उसे नजर नहीं लगेगी।

५॰ गिरजाघर से पवित्र-जल लाकर पिलाने का भी चलन है।

६॰ इस्लाम धर्म के अनुसार ‘नजर’ वाले पर से ‘अण्डा’ या ‘जानवर की कलेजी’ उतार के ‘बीच चौराहे’ पर रख दें। दरगाह या कब्र से फूल और अगर-बत्ती की राख लाकर ‘नजर’ वाले के सिरहाने रख दें या खिला दें।

७॰ एक लोटे में पानी लेकर उसमें नमक, खड़ी लाल मिर्च डालकर आठ बार उतारे। फिर थाली में दो आकृतियाँ- एक काजल से, दूसरी कुमकुम से बनाए। लोटे का पानी थाली में डाल दें। एक लम्बी काली या लाल रङ्ग की बिन्दी लेकर उसे तेल में भिगोकर ‘नजर’ वाले पर उतार कर उसका एक कोना चिमटे या सँडसी से पकड़ कर नीचे से जला दें। उसे थाली के बीचो-बीच ऊपर रखें। गरम-गरम काला तेल पानी वाली थाली में गिरेगा। यदि नजर लगी होगी तो, छन-छन आवाज आएगी, अन्यथा नहीं।

८॰ एक नींबू लेकर आठ बार उतार कर काट कर फेंक दें।

९॰ चाकू से जमीन पे एक आकृति बनाए। फिर चाकू से ‘नजर’ वाले व्यक्ति पर से एक-एक कर आठ बार उतारता जाए और आठों बार जमीन पर बनी आकृति को काटता जाए।

१०॰ गो-मूत्र पानी में मिलाकर थोड़ा-थोड़ा पिलाए और उसके आस-पास पानी में मिलाकर छिड़क दें। यदि स्नान करना हो तो थोड़ा स्नान के पानी में भी डाल दें।

११॰ थोड़ी सी राई, नमक, आटा या चोकर और ३, ५ या ७ लाल सूखी मिर्च लेकर, जिसे ‘नजर’ लगी हो, उसके सिर पर सात बार घुमाकर आग में डाल दें। ‘नजर’-दोष होने पर मिर्च जलने की गन्ध नहीं आती।

१२॰ पुराने कपड़े की सात चिन्दियाँ लेकर, सिर पर सात बार घुमाकर आग में जलाने से ‘नजर’ उतर जाती है।

१३॰ झाडू को चूल्हे / गैस की आग में जला कर, चूल्हे / गैस की तरफ पीठ कर के, बच्चे की माता इस जलती झाडू को 7 बार इस तरह स्पर्श कराए कि आग की तपन बच्चे को न लगे। तत्पश्चात् झाडू को अपनी टागों के बीच से निकाल कर बगैर देखे ही, चूल्हे की तरफ फेंक दें। कुछ समय तक झाडू को वहीं पड़ी रहने दें। बच्चे को लगी नजर दूर हो जायेगी।

१४॰ नमक की डली, काला कोयला, डंडी वाली 7 लाल मिर्च, राई के दाने तथा फिटकरी की डली को बच्चे या बड़े पर से 7 बार उबार कर, आग में डालने से सबकी नजर दूर हो जाती है।

१५॰ फिटकरी की डली को, 7 बार बच्चे/बड़े/पशु पर से 7 बार उबार कर आग में डालने से नजर तो दूर होती ही है, नजर लगाने वाले की धुंधली-सी शक्ल भी फिटकरी की डली पर आ जाती है।

१६॰ तेल की बत्ती जला कर, बच्चे/बड़े/पशु पर से 7 बार उबार कर दोहाई बोलते हुए दीवार पर चिपका दें। यदि नजर लगी होगी तो तेल की बत्ती भभक-भभक कर जलेगी। नजर न लगी होने पर शांत हो कर जलेगी।

१७॰ “नमो सत्य आदेश। गुरु का ओम नमो नजर, जहाँ पर-पीर न जानी। बोले छल सो अमृत-बानी। कहे नजर कहाँ से आई ? यहाँ की ठोर ताहि कौन बताई ? कौन जाति तेरी ? कहाँ ठाम ? किसकी बेटी ? कहा तेरा नाम ? कहां से उड़ी, कहां को जाई ? अब ही बस कर ले, तेरी माया तेरी जाए। सुना चित लाए, जैसी होय सुनाऊँ आय। तेलिन-तमोलिन, चूड़ी-चमारी, कायस्थनी, खत-रानी, कुम्हारी, महतरानी, राजा की रानी। जाको दोष, ताही के सिर पड़े। जाहर पीर नजर की रक्षा करे। मेरी भक्ति, गुरु की शक्ति। फुरो मन्त्र, ईश्वरी वाचा।”
विधि- मन्त्र पढ़ते हुए मोर-पंख से व्यक्ति को सिर से पैर तक झाड़ दें।

१८॰ “वन गुरु इद्यास करु। सात समुद्र सुखे जाती। चाक बाँधूँ, चाकोली बाँधूँ, दृष्ट बाँधूँ। नाम बाँधूँ तर बाल बिरामनाची आनिङ्गा।”



विधि- पहले मन्त्र को सूर्य-ग्रहण या चन्द्र-ग्रहण में सिद्ध करें। फिर प्रयोग हेतु उक्त मन्त्र के यन्त्र को पीपल के पत्ते पर किसी कलम से लिखें। “देवदत्त” के स्थान पर नजर लगे हुए व्यक्ति का नाम लिखें। यन्त्र को हाथ में लेकर उक्त मन्त्र ११ बार जपे। अगर-बत्ती का धुवाँ करे। यन्त्र को काले डोरे से बाँधकर रोगी को दे। रोगी मंगलवार या शुक्रवार को पूर्वाभिमुख होकर ताबीज को गले में धारण करें।

१९॰ “ॐ नमो आदेश। तू ज्या नावे, भूत पले, प्रेत पले, खबीस पले, अरिष्ट पले- सब पले। न पले, तर गुरु की, गोरखनाथ की, बीद याहीं चले। गुरु संगत, मेरी भगत, चले मन्त्र, ईश्वरी वाचा।”
विधि- उक्त मन्त्र से सात बार ‘राख’ को अभिमन्त्रित कर उससे रोगी के कपाल पर टिका लगा दें। नजर उतर जायेगी।

२०॰ “ॐ नमो भगवते श्री पार्श्वनाथाय, ह्रीं धरणेन्द्र-पद्मावती सहिताय। आत्म-चक्षु, प्रेत-चक्षु, पिशाच-चक्षु-सर्व नाशाय, सर्व-ज्वर-नाशाय, त्रायस त्रायस, ह्रीं नाथाय स्वाहा।”
विधि- उक्त जैन मन्त्र को सात बार पढ़कर व्यक्ति को जल पिला दें।

२१॰ “टोना-टोना कहाँ चले? चले बड़ जंगल। बड़े जंगल का करने ? बड़े रुख का पेड़ काटे। बड़े रुख का पेड़ काट के का करबो ? छप्पन छुरी बनाइब। छप्पन छुरी बना के का करबो ? अगवार काटब, पिछवार काटब, नौहर काटब, सासूर काटब, काट-कूट के पंग बहाइबै, तब राजा बली कहाईब।”
विधि- ‘दीपावली’ या ‘ग्रहण’-काल में एक दीपक के सम्मुख उक्त मन्त्र का २१ बार जप करे। फिर आवश्यकता पड़ने पर भभूत से झाड़े, तो नजर-टोना दूर होता है।

२२॰ डाइन या नजर झाड़ने का मन्त्र
“उदना देवी, सुदना गेल। सुदना देवी कहाँ गेल ? केकरे गेल ? सवा सौ लाख विधिया गुन, सिखे गेल। से गुन सिख के का कैले ? भूत के पेट पान कतल कर दैले। मारु लाती, फाटे छाती और फाटे डाइन के छाती। डाइन के गुन हमसे खुले। हमसे न खुले, तो हमरे गुरु से खुले। दुहाई ईश्वर-महादेव, गौरा-पार्वती, नैना-जोगिनी, कामरु-कामाख्या की।”
विधि- किसी को नजर लग गई हो या किसी डाइन ने कुछ कर दिया हो, उस समय वह किसी को पहचानता नहीं है। उस समय उसकी हालत पागल-जैसी हो जाती है। ऐसे समय उक्त मन्त्र को नौ बार हाथ में ‘जल’ लेकर पढ़े। फिर उस जल से छिंटा मारे तथा रोगी को पिलाए। रोगी ठीक हो जाएगा। यह स्वयं-सिद्ध मन्त्र है, केवल माँ पर विश्वास की आवश्यकता है।


२३॰ नजर झारने के मन्त्र
१॰ “हनुमान चलै, अवधेसरिका वृज-वण्डल धूम मचाई। टोना-टमर, डीठि-मूठि सबको खैचि बलाय। दोहाई छत्तीस कोटि देवता की, दोहाई लोना चमारिन की।”
२॰ “वजर-बन्द वजर-बन्द टोना-टमार, डीठि-नजर। दोहाई पीर करीम, दोहाई पीर असरफ की, दोहाई पीर अताफ की, दोहाई पीर पनारु की नीयक मैद।”
विधि- उक्त मन्त्र से ११ बार झारे, तो बालकों को लगी नजर या टोना का दोष दूर होता है।

२४॰ नजर-टोना झारने का मन्त्र
“आकाश बाँधो, पाताल बाँधो, बाँधो आपन काया। तीन डेग की पृथ्वी बाँधो, गुरु जी की दाया। जितना गुनिया गुन भेजे, उतना गुनिया गुन बांधे। टोना टोनमत जादू। दोहाई कौरु कमच्छा के, नोनाऊ चमाइन की। दोहाई ईश्वर गौरा-पार्वती की, ॐ ह्रीं फट् स्वाहा।”
विधि- नमक अभिमन्त्रित कर खिला दे। पशुओं के लिए विशेष फल-दायक है।



२५॰ नजर उतारने का मन्त्र

“ओम नमो आदेश गुरु का। गिरह-बाज नटनी का जाया, चलती बेर कबूतर खाया, पीवे दारु, खाय जो मांस, रोग-दोष को लावे फाँस। कहाँ-कहाँ से लावेगा? गुदगुद में सुद्रावेगा, बोटी-बोटी में से लावेगा, चाम-चाम में से लावेगा, नौ नाड़ी बहत्तर कोठा में से लावेगा, मार-मार बन्दी कर लावेगा। न लावेगा, तो अपनी माता की सेज पर पग रखेगा। मेरी भक्ति, गुरु की शक्ति, फुरो मन्त्र ईश्वरी वाचा।”
विधिः- छोटे बच्चों और सुन्दर स्त्रियों को नजर लग जाती है। उक्त मन्त्र पढ़कर मोर-पंख से झाड़ दें, तो नजर दोष दूर हो जाता है।



२६॰ नजर-टोना झारने का मन्त्र
“कालि देवि, कालि देवि, सेहो देवि, कहाँ गेलि, विजूवन खण्ड गेलि, कि करे गेलि, कोइल काठ काटे गेलि। कोइल काठ काटि कि करति। फलाना का धैल धराएल, कैल कराएल, भेजल भेजायल। डिठ मुठ गुण-वान काटि कटी पानि मस्त करै। दोहाई गौरा पार्वति क, ईश्वर महादेव क, कामरु कमख्या माई इति सीता-राम-लक्ष्मण-नरसिंघनाथ क।”
विधिः- किसी को नजर, टोना आदि संकट होने पर उक्त मन्त्र को पढ़कर कुश से झारे।

नोट :- नजर उतारते समय, सभी प्रयोगों में ऐसा बोलना आवश्यक है कि “इसको बच्चे की, बूढ़े की, स्त्री की, पुरूष की, पशु-पक्षी की, हिन्दू या मुसलमान की, घर वाले की या बाहर वाले की, जिसकी नजर लगी हो, वह इस बत्ती, नमक, राई, कोयले आदि सामान में आ जाए तथा नजर का सताया बच्चा-बूढ़ा ठीक हो जाए। सामग्री आग या बत्ती जला दूंगी या जला दूंगा।´´

भैरव वशीकरण मन्त्र भैरव वशीकरण मन्त्र
१॰ “ॐनमो रुद्राय, कपिलाय, भैरवाय, त्रिलोक-नाथाय, ॐ ह्रीं फट् स्वाहा।”
विधिः- सर्व-प्रथम किसी रविवार को गुग्गुल, धूप, दीपक सहित उपर्युक्त मन्त्र का पन्द्रह हजार जप कर उसे सिद्ध करे। फिर आवश्यकतानुसार इस मन्त्र का १०८ बार जप कर एक लौंग को अभिमन्त्रित लौंग को, जिसे वशीभूत करना हो, उसे खिलाए।

२॰ “ॐ नमो काला गोरा भैरुं वीर, पर-नारी सूँ देही सीर। गुड़ परिदीयी गोरख जाणी, गुद्दी पकड़ दे भैंरु आणी, गुड़, रक्त का धरि ग्रास, कदे न छोड़े मेरा पाश। जीवत सवै देवरो, मूआ सेवै मसाण। पकड़ पलना ल्यावे। काला भैंरु न लावै, तो अक्षर देवी कालिका की आण। फुरो मन्त्र, ईश्वरी वाचा।”
विधिः- २१,००० जप। आवश्यकता पड़ने पर २१ बार गुड़ को अभिमन्त्रित कर साध्य को खिलाए।

३॰ “ॐ भ्रां भ्रां भूँ भैरवाय स्वाहा। ॐ भं भं भं अमुक-मोहनाय स्वाहा।”
विधिः- उक्त मन्त्र को सात बार पढ़कर पीपल के पत्ते को अभिमन्त्रित करे। फिर मन्त्र को उस पत्ते पर लिखकर, जिसका वशीकरण करना हो, उसके घर में फेंक देवे। या घर के पिछवाड़े गाड़ दे। यही क्रिया ‘छितवन’ या ‘फुरहठ’ के पत्ते द्वारा भी हो सकती है।