एक समय सारे वेद नष्ट हो गए। वैदिक कर्मों एवं यज्ञ आदि का लोप हो गया। चारों वर्ण एक में मिल गए और सर्वत्र वर्णसंकरता फैल गई। धर्म शिथिल हो गया और अधर्म दिनों दिन बढ़़ऩे लगा। सत्य दब गया तथा सब ओर असत्य ने अपना सिक्का जमा लिया। प्रजा क्षीण होने लगी। ऐसे समय में अत्रि पत्नी अनुसूया से प्रकट होकर दत्तात्रेय जी ने यज्ञ और कर्मानुष्ठान की विधि सहित सम्पूर्ण वेदों का पुनरुद्धार किया और पुन: चारों वर्णों को पृथक-पृथक अपनी-अपनी मर्यादा में स्थापित किया।
(1) पृथ्वी- धूप, शीत, वर्षा को धैर्यपूर्वक सहन करने वाली, लोगों द्वारा मल-मूत्र त्यागने व पदाघात आदि पर भी क्रोध न करने वाली, अपनी कक्ष और मर्यादा पर निरंतर नियत गति से घूमने वाली सदैव कर्तव्य परायण पृथ्वी को मैंने अपना प्रथम गुरु माना और उनसे इन सद्गुणों को सीखा।
(2) पवन- कभी अचल न होकर बैठना, निरंतर गतिशील रहना, संतप्तों को सांत्वना देना, गंध को वहन करना पर स्वयं निर्लिप्त रहना- ये विशेषताएं पवन में पाईं और उन्हें सीखकर उसे गुरु माना।
(3) आकाश- अनंत विशाल होते हुए भी अनेक ब्रह्मांडों को अपनी गोद में भरे रहने वाले, ऐश्वर्यवान रहते हुए भी रंच मात्र अभिमान न करने वाले आकाश का गुण मुझे बहुत प्रिय लगा। इन गुणों को आचरण में लाने का प्रयत्न करते हुए मैंने उसे गुरु वरण किया।
(4) जल- सबको शुद्ध बनाना, सदा सरल और तरल रहना, आतप को शीतलता में परिवर्तित कर देना, वृक्ष-वनस्पतियों तक को जीवन दान करना आदि महानताएं जल में देखीं तो उसे गुरु मानना ही उचित समझा।
(5) यम- अनुपयोगी को हटा देना, अभिवृद्धि पर नियंत्रण रखना, संसार यात्रा से थके हुओं को विश्राम देने के कार्य में संलग्न यम को पाया तो उसे भी गुरु बना लिया।
(6) अग्नि- निरंतर प्रकाशमान, ऊर्ध्वमुख, संग्रह से दूर रहने वाली, स्पर्श करने वालों को अपना ही रूप बना लेने वाली, समीप रहने वालों को भी प्रभावित करने वाली अग्रि मुझे आदर्श लगी, अत: उसे गुरु वरण किया।
(7) चन्द्रमा- अपने पास प्रकाश न रहने पर भी सूर्य से याचना करके पृथ्वी को चांदनी का दान देते रहने वाला परमार्थी चंद्रमा मुझे सराहनीय लोक सेवक लगा। विपत्ति में सारी कलाएं क्षीण हो जाने पर भी निराश न होकर न बैठना और फिर आगे बढऩे का साहस बार-बार करते रहना, धैर्यवान चंद्रमा का श्रेष्ठ गुण कितना उपयोगी है- यह देखकर उसे मैंने गुरु बनाया।
(8) सूर्य- नियत समय पर अपना नियत कार्य अविचल भाव से निरंतर करते रहना, स्वयं प्रकाशित होना और दूसरों को प्रकाशित करना सूर्य का गुण देखकर उन्हें गुरु माना।
(9) कबूतर- पेड़ के नीचे बिछे हुए जाल में पड़े दाने देखकर लालची कबूतर आलस्यवश अन्यत्र न गया और उतावली में बिना कुछ सोचे-विचारे ललचाया और जाल में फंस कर अपने प्राण गंवा बैठा। उसे गुरु मानकर शिक्षा ग्रहण की कि लोभ और अविवेक से किस प्रकार पतन होता है।
(10) अजगर- शीतकाल में अंग जकड़ जाने के कारण भूखा अजगर मिट्टी खाकर दुॢदन को सहन करता था, उसकी इस सहनशीलता ने मुझे अपना अनुयायी और शिष्य बना लिया।
(11) समुद्र- अपनी मर्यादा से आगे न बढऩे वाला, स्वयं खारा होने पर भी बादलों को मधुर जल दान करने वाले समुद्र को गुरु कैसे न मानता।
(12) पतंगा- लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्राणों की परवाह न करके सदैव अग्रसर होने वाला पतंगा अपनी निष्ठा से गुरु बन मुझे शिक्षा दे रहा था।
(13) मधु मक्खी- पुष्पों का मधुर संचय करके दूसरों के लिए समर्पण करने की जीवन साधना में लगी हुई मधुमक्खी मुझे शिक्षा दे रही थी कि मनुष्य स्वार्थी नहीं, परमार्थी बने।
(14) भौंरा- राम के आसक्त प्राणी किस प्रकार अपने प्राण गंवाता है यह शिक्षा अपने गुरु भौंरा से मैंने सीखी और गांठ बांध ली।
(15) हाथी- कामातुर हाथी किस प्रकार बंधन में बंध गया, यह देखकर मैंने वासना के दुष्परिणामों को समझा और उसे गुरु माना।
(16) मृग, मछली- कानों के विषयों में आसक्त मृग की बधिकों द्वारा पकड़े जाते और जिह्वा की लोलुप मछली को कछुआरे के जाल में तड़पते देखा तो उनसे भी शिक्षा ग्रहण की।
(17) वेश्या- सद्गृहस्थ का आनंद और पतिव्रत धर्म द्वारा परलोक साधन का व्यवहार गंवा कर पश्चाताप से दूसरों को सावधानी का संदेश देने वाली पिंगला वेश्या भी मेरे गुरु पद पर प्रतिष्ठित हुई।
(18) काक- काक पक्षी ने मुझे सिखाया कि धूर्तता और स्वार्थपरता की नीति अंत में हानिकारक होती है। अत: वह भी मेरा गुरु ही है।
(19) अबोध बालक- राग द्वेष, चिंता, काम, क्रोध, लोभ आदि दुर्गुणों से रहित अबोध बालक कितना सुखी और शांत रहता है, उसके समान बनने के लिए बच्चे को अपना आदर्श माना तथा उसे भी गुरु कहा।
(20) धान कूटती स्त्री- एक स्त्री चूडिय़ां पहने धान कूट रही थी। चूडिय़ां आपस में खनकती थीं। घर आए मेहमानों को इस बात का पता न लगे, इसलिए उसने एक-एक करके हाथों की चूडिय़ां उतार दीं और एक-एक ही रहने दीं। उससे मैंने सीखा कि अनेक कामनाओं के रहते चूडिय़ों की तरह मन में संघर्ष होते रहते हैं पर यदि एक ही लक्ष्य नियत कर लिया जाए तो सभी उद्वेग शांत हो जाएं।
(21) लोहार- लोहार अपनी भट्ठी में लोहे के टूटे-फूटे टुकड़ों को गर्म करके हथौड़े की चोट से कई तरह का सामान बना रहा था, उसे देखकर सीखा कि निरुपयोगी और कठोर प्रतीत होने वाले मनुष्य भी यदि अपने को तपाने और चोट सहने की तैयारी कर लें तो उपयोगी उपकरण बन सकते हैं।
(22) सर्प- सर्प दूसरों को कष्ट देता और प्रत्युतत्तर में सब ओर से त्रास पाता है। उसने मुझे सिखाया कि उद्दण्ड, क्रोधी, आक्रामक और आततायी होना किसी के लिए भी श्रेयस्कर नहीं है।
(23) मकड़ी- मकड़ी की क्रिया को देखकर मुझे सूझा कि अपनी दुनिया हर मनुष्य अपनी भावना के अनुरूप ही गढ़ता है।
(24) भृंगज- भृंगज कीड़ा एक झींगुर को पकड़कर लाया और अपनी भुनभुनाहट से प्रभावित कर उसे अपने समान बना लिया। यह देखकर मैंने सोचा कि एकाग्रता और तन्मयता के द्वारा मनुष्य अपना शारीरिक और मानसिक कायाकल्प कर डालने में भी सफल हो सकता है।
विवेकशील व्यक्ति सामान्य वस्तुओं और घटनाओं से भी शिक्षा ग्रहण करते और अपने जीवन में धारण करते हैं। अतएव उनका विवेक बढ़ता जाता है, यह विवेक ही सब सिद्धियों का मूल कारण है। अविवेकी लोग तो ब्रह्मा के समान गुरु को भी पाकर कुछ लाभ उठा नहीं सकते।